चन्द्रेह मंदिर और भँवरसेन का पुल
मानसून की तलाश में एक यात्रा - भाग 3
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पिछले भाग में आपने पढ़ा कि मैं भरहुत स्तूप देखने के बाद सतना के लिए रवाना हो गया और अब मैं सतना के बस स्टैंड पर पहुँच चुका था। अब अपनी ''ऐतिहासिक मंदिरों की एक खोज की श्रृंखला'' को आगे बढ़ाते हुए मेरी अगली मंजिल नौबीं शताब्दी का ऐतिहासिक चन्द्रेह शिव मंदिर था जो रीवा से लगभग 35 किमी आगे मध्य प्रदेश के सीधी जिले में स्थित है। यह मंदिर मुख्य शहरों और बाजारों से कोसों दूर एक वियावान स्थान पर एक नदी के किनारे स्थित था। मुख्य राजमार्ग से भी इसकी दूरी लगभग दस किमी के आसपास थी। यहाँ तक पहुँचने से पहले मेरे मन में अनेकों चिंताएं और जिज्ञासाएं थीं।
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यहाँ के लोग, यहाँ का माहौल और यहाँ के आवागमन की मुझे पूर्ण जानकारी नहीं थी किन्तु बस इस मंदिर को देखने और खोजने का हौंसला मेरे अंदर था। अकेला होने की वजह से मेरा मन यहाँ जाने से कतरा रहा था, अंजाना इलाका और समय भी आधा दिन का ही शेष था। इतने समय में मुझे चन्द्रेह मंदिर देखकर वापस रीवा लौटना था जहाँ से रात को दस बजे मेरी ट्रेन थी। इतना सबकुछ आधा दिन में करना मुझे अब असंभव सा प्रतीत होने लगा था, क्योंकि सतना से चन्द्रेह मंदिर की दूरी लगभग 140 किमी के आसपास थी और लगभग 80 किमी वहां से वापसी में रीवा भी लौटना था।
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अब मुझे इस बस स्टैंड पर चन्द्रेह जाने वाली बस के बारे में पता करना था। इससे पहले मुझे अपनी भूख का भी इंतजाम सोचना था क्योंकि सुबह से अभी तक मैंने कुछ भी नहीं खाया था। कल्पना ने जो कल शाम को पूड़ियाँ सेकीं थीं वो अभी तक मेरे पास थी। चन्द्रेह की बस पता करते हुए आखिर मैं एक ऐसी बस पर पहुंचा जो चन्द्रेह तो नहीं जा रही थी किन्तु सतना से सीधी अवश्य जा रही थी। इसी बस के कंडक्टर ने मुझे बताया कि आपको यहाँ से चन्द्रेह के लिए कोई बस नहीं मिलेगी। हम आपको हत्था उतार देंगे, वहां से चन्द्रेह 7 - 8 किमी दूर है और वहां जाने के लिए आपको आसानी से ऑटो मिल जायेगा।
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मैंने बस वाले से पूछा कि यह बस कितने बजे तक हत्था पहुँच जाएगी तो उसने बताया लगभग साढ़े चार बजे तक। अभी घड़ी में 2 बजे थे, मतलब यहाँ से चन्द्रेह पहुँचने में लगभग तीन घंटे लग ही जाने हैं। बस की टिकट लेकर मैं बसस्टैंड के पास स्थित एक समोसे के दुकान पर गया और बस के चलने से पहले ही गर्मागर्म समोसों के साथ घर की बनी पूड़ियाँ खाकर आज की भूख शांत की। कुछ ही समय बाद मैं बस में अपनी सीट पर आकर बैठ गया, मेरी सीट विंडों वाली सीट थी जो मैंने कंडक्टर से जानबूझ कर मांगीं थी। जब तक बस के चलने का समय हुआ तब तक बस पूरी तरह से भर चुकी थी।
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मध्य प्रदेश में बेशक सरकारी अथवा रोड़वेज बसों की सुविधा उपलब्ध नहीं है किन्तु यहाँ पूरे मध्य प्रदेश में सरकारी बसों से भी अच्छी सुविधा यह प्राइवेट बस वाले मुहैया कराते हैं। यह प्राइवेट बसें मध्य प्रदेश के छोटे छोटे गाँवों को भी कवर करती हैं और नियमित अपने समयानुसार चलती हैं। इन्हीं बसों की सहायता से मध्य प्रदेश को कम बजट के साथ घूमना आसान हो जाता है किन्तु समय की खपत अवश्य होती है। बस की सीटें लगभग फुल हो चुकीं थीं, अधिकतर सवारियां खड़े होकर भी यात्रा करने को तैयार थीं क्योंकि अगली बस इस मार्ग पर एक घंटे बाद थी।
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सही ढ़ाई बजे बस अपने गंतव्य को रवाना हो गई। सतना से रीवा वाला राजमार्ग काफी शानदार अवस्था में बना है। सतना से निकलने के बाद मुझे मार्ग में एक विशाल किला दिखाई दिया। यह माघवगढ़ का किला है जो सतना से दूर किन्तु सतना रियासत का मुख्य केंद्र है। एक नदी के किनारे बना यह किला सचमुच देखने योग्य है। कुछ समय बाद बेला नामक एक स्थान आया, यह स्थान यहाँ की बसों के लिए एक जंक्शन पॉइंट है क्योंकि यहाँ से रीवा का मार्ग अलग हो जाता है और सीधी - सिंगरौली का अलग। हमारी बस यहाँ दस मिनट तक खड़ी हुई। यहीं मैंने एक पानी की बोतल और दो समोसे ले लिए और थोड़ी देर बस यहाँ से निकल पड़ी।
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अब बस का मुख्य अगला पड़ाव गोविंदगढ़ था, किन्तु इससे पहले ही मुकुंदपुर टाइगर सफारी का क्षेत्र शुरू हो गया। अभी हम रीवा जिला में थे, रीवा की भूमि सफ़ेद शेरों की भूमि है। समस्त भारत में सफ़ेद बाघ या शेर, रीवा के जंगलों में ही पाया जाता है अतः रीवा में इन सफ़ेद शेरो को देखने के लिए मुकुंदपुर टाइगर रिज़र्व बना हुआ है जहाँ अनेकों पर्यटक केवल इन बाघों को ही देखने यहाँ आते हैं। चूँकि बस इस टाइगर रिज़र्व के ठीक सामने से निकल रही थी इसका मतलब था कि सड़क दोनों ओर दिखाई देता जंगल एक टाइगर रिज़र्व क्षेत्र है और यह मार्ग घने जंगलों के बीच से होकर गुजरता है। मुकुंदपुर टाइगर रिज़र्व का गेट भी मैंने बस में से बैठकर देखा। यहाँ जगह जगह सड़क पर चेतावनी के बोर्ड लगे हुए हैं।
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टाइगर रिज़र्व की भूमि और जंगलों को पार करने के बाद अंततः बस गोविंदगढ़ पहुंची। यह रीवा जिले का अंतिम क़स्बा है, इसके बाद रीवा जिले की सीमा समाप्त हो जाती है और एक विशाल पहाड़ के दूसरी तरफ इस भूमि से और गहराई में स्थित सीधी जिला शुरू हो जाता है। गोविंदगढ़ में एक किला बना हुआ है जो कि इसमार्ग से दिखलाई नहीं पड़ता। गोविंदगढ़ में कुछ देर रुकने के बाद बस आगे रवाना हो चली।
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अब घाटों का सिलसिला शुरू हो चूका था, बस अब एक ऊँचे पर्वत पर चढ़ने लगी थी। गोल गोल घुमावदार सड़कें देखने में जितनी अच्छी लग रहीं थीं यह उतनी ही खतरनाक थीं। बस पहले गेयर में तेज आवाज करती हुई इस संकरी सड़क पर चढ़ती जा रही थी और दूसरी ओर से ट्रकों का आने का क्रम भी कम नहीं हो रहा था क्योंकि यह राजमार्ग जो था। ऊपर पर्वत पर पहुंचकर अब दूसरी दिशा में उतरने का मार्ग भी दिखलाई पड़ने लगा था, यह भी वही सर्पाकार और गोलाकार रूप में था जिन्हें घाट कहा जाता है।
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हिमालय के पहाड़ों में जिसप्रकार देवदार के वृक्षों की भरमार होती है ठीक उसी तरह छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के जंगलों और पहाड़ों में तेंदू के वृक्षों की भरमार होती है। नजारा लगभग एक सा होता है बस हिमालय और विंध्यांचल के पर्वतों में फर्क सिर्फ इतना है कि हिमालय के पहाड़ अत्यधिक ऊँचे और बर्फीले होते हैं और मनुष्य की पहुँच से दूर होते हैं वहीँ विंध्य के पर्वत ज्यादा ऊँचे नहीं होते और ना ही बर्फीले होते हैं किन्तु मनुष्य की पहुँच में होते हैं। अब बस सीधी जिले के लिए पहाड़ से उतरने लगी थी। पहाड़ से सीधी की भूमि बहुत नीचे दिखाई दे रही थी, इतनी नीचे कि एकबार को ऐसा लगने लगा जैसे हम मध्य प्रदेश में नहीं बल्कि हिमालय के पहाड़ों में ही यात्रा कर रहे थे।
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जब बस पूरी तरह से पर्वत से नीचे उतरकर मैदानी भाग में आ गई और सीधी जिले में इसका पहला स्टॉप आया। यह स्थान बहेड़ा था और एक मुख्य चौराहा था, यहाँ एक एक मुख्य मार्ग बांधवगढ़ होते हुए उमरिया और शहडोल के लिए गया है और साथ ही अमरकंटक जाने का मुख्य मार्ग भी है। इसके अलावा सीधा रास्ता सीधी के लिए गया है जिसपर मुझे अभी और आगे के लिए जाना था। घड़ी में साढ़े चार बजने का समय होने वाला था अभी दस मिनट की देरी थी। ढलते दिन को देखकर अब मेरी धड़कनों ने भी धड़कना शुरू कर दिया था। बहेड़ा से 7 किमी आगे हत्था चौराहा आया, मैं बस से यहीं उतर गया और बस सीधी के लिए रवाना हो गई जो अभी यहाँ से लगभग 35 किमी दूर था।
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चौराहे पर उतरकर मैंने यहाँ लगे बोर्ड को देखा जिसपर चन्द्रेह की दूरी लगभग 10 किमी लिखी थी। चन्द्रेह जाने से पहले मैंने एक दुकानदार से यहाँ से रीवा जाने की बस के बारे में पुछा कि यहाँ से रीवा की बस कितने बजे तक मिलती है। उसने कहा शाम को सात बजे रीवा की है और साढ़े सात बजे सतना की। उसके बाद कोई बस नहीं है। मतलब ये था कि मुझे सात बजे तक यहाँ लौटकर आना ही था और अभी साढ़े चार बज चुके हैं। चन्द्रेह के रास्ते पर कई ऑटो वाले खड़े हुए थे किन्तु इनमें से कोई भी चन्द्रेह जाने वाला नहीं था।
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मैंने यहाँ चन्द्रेह जाने के लिए काफी इंतज़ार किया और अंत में ऑटो वाला मुझे मिला जिसने मुझे कहा कि वह मुझे एक ऐसे स्थान पर उतार देगा जहाँ से चन्द्रेह मंदिर की दूरी मात्र 500 मीटर के आसपास होगी। मैंने सोचा कि जब मैं यहाँ तक आ ही गया हूँ तो बिना चन्द्रेह मंदिर देखे तो वापस जाने से रहा, अब चाहे जो भी हो। बिना समय गंवाये मैं इस ऑटो में सवार हो गया। यहाँ अवश्य मुझे मानसून के कुछ अवशेष देखने को मिले थे मतलब हलके फुल्के बादल। मैं इस समय मध्य प्रदेश के गहन आदिवासी क्षेत्र में से गुजर रहा था। मध्य प्रदेश के खपरैल वाले मकानों से बने छोटे छोटे गाँव देखने में बहुत ही सुन्दर लगते हैं।
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उत्तर प्रदेश की अपेक्षा मध्य प्रदेश में बहुत अंतर है। उत्तर प्रदेश में जहाँ आबादी की भरमार है वहीं मध्य प्रदेश में दूर दूर तक मानव प्रजाति दिखाई नहीं देती है। यहाँ सिर्फ मैदान और मैदान दिखाई देते हैं, हर तरफ हरी भरी और बंजर दोनों प्रकार की भूमि दिखाई पड़ती है। अतः मध्य प्रदेश में सन्नाटा, वीराना और सुनसान जंगल यहां आने वाले अकेले सैलानी के दिल में डर भरने के लिए पर्याप्त हैं। कुछ समय बाद ऑटो में से खादरों और बीहड़ों के दिखने का दौर शुरू हो गया। ऐसे बीहड़ मैंने आगरा में यमुना जी के किनारे और चम्बल नदी के किनारे देखे थे। मुझे इतना तो पता था कि चन्द्रेह मंदिर पहुँचने के लिए एक नदी को पार करना पड़ता है पर यह नदी इतनी विशाल होगी यह नहीं पता था।
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अब ठीक सामने एक पुल दिखाई दे रहा था, इस पुल के दूसरी तरफ ऊँचे पहाड़ों का क्रम भी दिखाई दे रहा था। यह स्थान भँवरसेन था और यह पुल भी, भँवरसेन के नाम से जाना जाता है और जिस नदी पर यह पुल बना है यह सोन नदी है जिसका बहाव देखकर एकबार को मेरे रोंगटे से खड़े हो गए। ऑटो वाले ने पुल पार करने के बाद नदी के बहाव की दिशा की ओर इशारा करते हुए कहा - यहाँ से सीधे चले जाओ, यहाँ से कुछ ही दूरी पर चन्द्रेह मंदिर स्थित है। भंवरसेन का पुल पार करते ही पहाड़ियों का दौर शुरू हो जाता है, और बीहड़ों का दौर समाप्त। सीधे यह रास्ता संजय नेशनल पार्क से होकर गुजरता है जहाँ अभी ऑटो वाला गया है और इसी के बाईं तरफ का रास्ता चन्द्रेह के लिए गया है, ठीक सोन नदी की दिशा में।
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मैं नदी की दिशा में पैदल ही चन्द्रेह मंदिर की तरफ रवाना हो चला। यह अत्यंत ही भयावह व सुनसान क्षेत्र था किन्तु बहुत ही शांत, प्राकृतिक और रमणीक था। प्राकृतिक सुंदरता यहाँ चहुंओर दिखाई पड़ रही थी। यह इतनी सुन्दर थी कि मैं चाहकर भी इसकी सम्पूर्ण सुंदरता को कैमरे में कैद नहीं कर सकता था क्योंकि कैमरा जितनी जगह कवर कर सकता था वह इसकी सुंदरता का एक छोटा सा भाग मात्र था। चन्द्रेह जाने वाला यह सड़कमार्ग काफी शानदार बना हुआ है। मैं पैदल ही इस स्थान की सुंदरता को देखते हुए आगे बढ़ता जा रहा था और अब अकेलेपन का डर सा मेरे अंदर से समाप्त हो चुका था। मेरे ठीक बराबर में सोन नदी अपने तेज प्रवाह के साथ बह रही थी और उसके दूसरी तरफ बीहड़ों की पहाड़ियों के बीच सूर्य भी अस्त होने की कगार पर था।
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मैंने उस ऑटो वाले से पहले ही पूछ लिया था कि यहाँ से हत्था जाने के लिए मुझे वापसी में कोई ना कोई साधन तो मिल जाएगा ना, तब उसने कहा था कि आपको निश्चित ही जाने के लिए कुछ ना कुछ अवश्य मिल जायेगा। ऑटो वाले की बात पर विश्वास करने के अलावा मेरे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था। कुछ ही समय में मुझे चन्द्रेह गाँव दिखाई देने लगा, गाँव के नजदीक पहुँचते ही यहाँ के ऐतिहासिक शिव मंदिर की दिशा बताता हुआ बोर्ड लगा है और एक विशाल द्वार भी बना हुआ है। सड़क से 300 मीटर की दूरी पर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित चन्द्रेह मंदिर दिखाई देता है।
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मैंने ढलते हुए दिन को देखते हुए यहीं इसी गाँव में किसी घर में रुकने का विकल्प भी तलाश लिया था। सर्वप्रथम मैंने इसके द्वार का फोटो खींचा और ठीक गेट के नजदीक बने सरकारी हैडपम्प से जी भर कर ठंडा पानी पिया। नदी के किनारे स्थित होने के कारण यह अत्यंत शीतल जल देने वाला नल था। इसी के ठीक समीप चन्द्रेह मंदिर का इतिहास और इसकी महत्ता बताती प्रस्तर पट्टिका भी लगी हुई है। प्रस्तर पट्टिका के अनुसार चन्द्रेह का निर्माण 972 ई. में चेदि वंश के प्रारम्भिक काल में चेदि शासकों के गुरु और मत्त मयूर नामक शैव सम्प्रदाय के शैव योगी द्वारा पूर्ण हुआ था।
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इस मंदिर का निर्माण सोन और बनास नदी के संगम पर भगवान शिव की आराधना के लिए करवाया गया था, मंदिर के साथ साथ यहाँ शैव विहार और मठ की भी स्थापना हुई, जिसकी पुष्टि यहाँ लगे संस्कृत भाषा में लिखे दो प्राचीन शिलालेख करते हैं। मंदिर की संरचना शिवलिंग के योनिपीठ मतलब शिवलिंग के समान ही प्रतीत होती है, इस प्रकार का दूसरा मंदिर केरल के त्रिवेंद्रम शहर में परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। शांत और रमणीक स्थान पर यह मंदिर स्थित है। चेदि वंश के प्रारम्भिक काल में चन्द्रेह मंदिर के बाद अशोक नगर के कदवाया मंदिर और शिवपुरी स्थित सुरवाया शिव मंदिरों की भी स्थापना हुई।
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इसके पश्चात जब बुंदेलखंड की भूमि पर चंदेल शासकों को राज्य स्थापित हुआ तो उन्होंने ऐसे ऐतिहासिक मंदिरों को बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसका प्रमाण खजुराहो के मंदिर आज भी देते हैं। चन्द्रेह मंदिर की संरचना का प्रकार अद्वितीय है। मंदिर के नजदीक ही ऐतिहासिक मठ भी स्थित है जिसकी दीवारों में संस्कृत भाषा में लिखे प्राचीन शिलालेख आज भी दिखाई देते हैं। प्राचीनकाल में चेदि शासको के गुरु प्रबोधशिव द्वारा इस मंदिर की देख रेख का कार्य पूर्ण होता था और आज पुरातत्व विभाग द्वारा इसकी देखरेख की जाती है। मैंने जैसे ही इस मंदिर के फोटो लेने के लिए कैमरा निकाला और एक दो फोटो लेने लगा तभी पुरातत्व विभाग में नौकरी करने वाले यहाँ के प्रबंधक की नजर मुझपर पड़ गई और उसने मुझे कैमरे से फोटो खींचने के लिए मना कर दिया। मजबूरन इतनी दूर इस मंदिर के नजदीक आकर भी मुझे इसके ज्यादातर फोटो अपने मोबाइल से ही लेने पड़े।
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यहाँ ज्यादा समय ना रुककर मैं यहाँ से वापस हो गया। मेरे बाद यहाँ तीन और लड़के भी मंदिर की विडिओग्राफी करने के इरादे से यहाँ आये जो की यूटूबर थे और मंदिर का विडिओ बनाकर अपने यूट्यूब चैनल पर प्रसारित करते। मैं पैदल ही इस मंदिर से भंवरसेन के पुल की ओर चल दिया। रास्ता सुनसान था, सूरज भी पूर्णतः अब ढलने की कगार पर था, नजदीक में सोन नदी अपने तेज प्रवाह के साथ बह रही थी और मेरे दूसरी ओर पहाड़ियों और चट्टानों साम्राज्य स्थापित था। मनोहारी रास्ते को देखते हुए मैं जल्द ही भंवरसेन पुल के नजदीक पहुंचा और उसी स्थान पर खड़ा हो गया जहाँ मुझे वह ऑटो वाला उतार कर गया था, यहाँ संजय नेशनल पार्क जाने के लिए एक बोर्ड भी लगा हुआ था।
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काफी देर तक जब हत्था जाने के लिए मुझे कोई साधन नहीं मिला तो मैं यहाँ से पैदल ही रवाना हो चला। भयावह भँवरसेन के पुल को मैंने पैदल ही पार किया और मैंने यहाँ सोन नदी में मिलती हुई बनास नदी का संगम भी देखा। पुल के दूसरे मुहाने पर बीहड़ों की तरफ एक ऊँचे स्थान पर भी एक शिव मंदिर था और इसी के नजदीक एक छोटी सी दुकान थी। मैं इसी दुकानवाले के पास आकर खड़ा हो गया। भँवरसेन के पुल पर यहाँ के निवासी कुछ लड़के अपने मित्रों के साथ सेल्फियां भी ले रहे थे किन्तु मुझे इंतज़ार केवल किसी गाडी का था जिससे मैं हत्था तक पहुँच सकूँ। कुछ ही समय मैं मुझे एक बाइक सवार मिला गया, मैं इसी की बाइक पर सवार होकर कुछ आगे तक उसके गाँव तक आ गया।
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हत्था अभी भी यहाँ से 7 किमी दूर था और अँधेरा होने में भी अब आधा घंटा ही शेष बचा था। मैंने इस बाइक सवार से दोस्ती कर ली और वह, मेरे यहाँ घूमने आने का प्रयोजन जानकार बहुत खुश हुआ। उसने अपने घर पहुंचकर मेरे साथ एक सेल्फी ली और एक अपने जैसे लड़के को हाथ देकर रोकते हुए मुझे उसकी बाइक पर हत्था के लिए बैठा दिया। मेरी समस्या का निवारण हो चुका था और मैं अब उस बाइक द्वारा हत्था के लिए रवाना हो गया। बाइक सवार ने मुझे हत्था के चौराहे पर उतार दिया, मैंने उसका धन्यवाद किया और चौराहे पर स्थित एक पान की दुकान पर पहुंचा।
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दुकानदार से मैंने रीवा जाने वाली बस के बारे में पूछा तो उसने स्पष्ट मना कर दिया और कहा कि अब रीवा की कोई बस नहीं है, केवल एक लास्ट बस बची है सतना जाने वाली। यह बस रीवा नहीं जाएगी बल्कि बेला होकर जायेगी, ठीक उसी मार्ग से जिससे मैं यहाँ आया था। मेरी चिंताएं बढ़ती जा रही थीं, मैंने उस दूकानदार से पान लेकर खाते हुए पूछा कि भाई फिर रीवा कैसे पहुंचा जा सकता है। तब उसने मुझे याद दिलवाया कि यहाँ से आठ किमी आगे बहेड़ा नामक चौराहा है जहाँ से रात भर रीवा के लिए बस मिलती है। यह वही चौराहा था जो पर्वत के नजदीक तलहटी में स्थित था तथा बांधवगढ़ होते हुए शहडोल के लिए गया था।
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एक ऑटो द्वारा मैं हत्था से बहेड़ा के लिए रवाना हो गया। मेरे बहेड़ा पहुँचने से पहले ही मेरी ही आँखों के सामने रीवा जाने वाली बस छूट गई। मैंने यहाँ के एक दुकानदार से रीवा वाली बस के बारे में पुछा तो उसने कहा कि अब अगली बस रात आठ बजे आएगी। करता, क्या ना करता, मुझे उसी बस का इंतज़ार यहाँ खड़े होकर करना पड़ा। शहडोल से रीवा के लिए यहाँ से अनेकों ट्रक जा रहे थे किन्तु बस वालों की वजह से मध्य प्रदेश में कोई भी प्राइवेट वाहन वाले को सवारियां बैठाने का हक़ नहीं होता।
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क्योंकि गर बस का इंतज़ार करती सवारियां प्राइवेट और डग्गेमार साधनों से यात्रा करने लगेंगी तो बस के चलने का कोई औचित्य ही नहीं रहेगा और मध्य प्रदेश के लोग अपनी जीवन रेखा अपनी इन बसों को बंद होते नहीं देख सकते अतः वह इनका इंतज़ार करने के लिए सड़कों पर घंटों खड़े भी रह सकते हैं और बस में बिना सीट के खड़े होकर लम्बी यात्रा भी कर सकते हैं परन्तु बस के अलावा दूसरा विकल्प नहीं सोचते। इनके ऐसा करने से बसों के सञ्चालन का खर्चा भी निकलता है और बसों को मध्य प्रदेश के दुर्लभ रास्तों पर यात्रा करने में कोई परेशानी भी नहीं आती।
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अँधेरा हो चुका है, चौराहे पर धीरे धीरे दुकानों के बंद होने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है। मैं जिस दुकान के पास खड़ा था यह एक चाय वाले बाबा की झोपडी नुमा दुकान थी जिसमें एक सिगड़ी जल रही थी और उसी के ऊपर चाय के केतली में चाय गर्म हो रही थी। बाबा दुकान बढ़ाने की तैयारी में थे, मैंने बाबा से एक चाय ली और बस का इंतज़ार करने लगा। शाम के साढ़े सात बजे सतना जाने वाली बस आ चुकी थी, मेरे अलावा जो एकाध सवारी यहाँ थी वह इस बस में सवार हो गईं।
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धड़कते हुए दिल और तेज साँसों के बीच मैंने दुकानदार से एक बार फिर पूछा कि अभी रीवा वाली बस आएगी ना ? उसने आत्मविश्वास के फिर से मुझे वही जवाब दिया कि अवश्य आएगी और इसी के बाद आएगी। मुझे उसकी बात सुनकर थोड़ा सा संतोष हुआ। काफी देर रुकने के बाद,सतना वाली बस जा चुकी थी और घड़ी अब आठ बजा चुकी थी। मेरे दिल ने एकबार फिर से तेजी से धड़कना शुरू कर दिया था, बस के इंतज़ार में मुझे अब भूख और प्यास की कोई सुध नहीं रही थी। मध्य प्रदेश के जंगली इलाके के एक सुनसान चौराहे पर, घने अँधेरे के बीच अब मुझे चिंताओं ने आ घेरा था। रीवा से मेरी ट्रेन रात को दस बजे थी और अभी मैं रीवा से बहुत दूर था। एक ऊँचा पर्वत मेरे और रीवा के बीचे सीना ताने खड़ा था जिसे रात के अँधेरे में पैदल पार करना असंभव था।
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मैं फिर से चाय वाले बाबा की झोपड़ीनुमा दुकान में आकर बैठ गया और अपनी तसल्ली के लिए चायवाले बाबा से भी रीवा वाली बस के बारे में पुछा। बाबा इस समय ढलती शाम और अँधेरे का लुफ्त उठाते हुए शराब के जाम बना कर पी रहे थे और उन्होंने मुझे जवाब दिया कि अब तक तो उस बस को आ जाना चाहिए था, आज शायद बस लेट हो गई है। मुझे अब ऐसा लगने लगा था जैसे भगवान् साक्षात् मेरी यात्रा के दौरान मेरे धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। परन्तु मुझे अपने भगवान् पर पूर्ण विश्वास था इसलिए मैं डर से अभी भी कोसों मील दूर था। कुछ ही समय बाद रीवा जाने वाली बस आ गई और मेरे चेहरे पर चिंताओं की लकीरों की जगह अब हलकी सी मुस्कान थी।
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मैंने पहलीबार कंडक्टर के किराया माँगने से पहले ही उसे पैसे देते हुए रीवा की एक टिकट ली और इत्मीनान से अब मैं रीवा पहुँचने के लिए बस की सीट पर बैठ गया। बस ने पहाड़ को चढ़ना आरम्भ कर दिया था, यहाँ से इस पहाड़ की चढ़ाई अत्यंत कठिन थी क्योंकि यह खड़ी चढ़ाई थी। सीधी से निकलकर अब मैं रीवा जनपद में शामिल हो गया और जल्द ही घाटों का सिलसिला भी समाप्त हो गया और बस अब गोविंदगढ़ पहुँच चुकी थी। गोविंदगढ़ के बाद जल्द ही मुझे बस ने रीवा पहुंचा दिया और पुराने बस अड्डे पर पहुंचकर मैं यहाँ से रेलवे स्टेशन के लिए एक ऑटो में बैठ गया।
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रीवा बहुत बड़ा शहर था, ऑटो वाले को बस स्टैंड से रेलवे स्टेशन पहुँचने में ही चालीस मिनट से भी ज्यादा लगे।रेलवे स्टेशन पहुंचकर मैंने देखा कि मेरी ट्रेन प्लेटफार्म 1 पर ही खड़ी हुई थी। अपनी सीट पर पहुँचकर मैंने राहत की सांस ली और ईश्वर का धन्यवाद अदा किया। अब मेरी अगली यात्रा बिलासपुर की तरफ थी। मैंने अपनी माँ के पास फोन करके उनके हालचाल जाने और उन्हें अपनी अगली यात्रा के प्लान से अवगत कराया। ट्रेन का यह जनरल कोच एकदम खाली था, यहीं इसी सीट पर मैंने अपना बिस्तर लगाया और सो गया।
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सतना बस स्टैंड पर एक बस |
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माधवगढ़ का किला - सतना |
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किले के नजदीक बहती सतना नदी |
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माधवगढ़ का किला - सतना |
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माधवगढ़ का किला - सतना |
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रास्ते में दो मंदिरों का समूह |
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सतना - रीवा राष्ट्रीय राजमार्ग |
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गोविंदगढ़ के चौराहे पर |
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चौराहे पर स्थित एक मंदिर |
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घाट सेक्शन शुरू |
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हत्था चौराहा - सीधी |
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भँवरसेन का पुल - सीधी |
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सोन नदी - सीधी जिले में |
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भँवरसेन का पुल और पहाड़ियाँ |
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लोकेशन बोर्ड - जिला सीधी |
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चन्द्रेह गाँव की ओर का रास्ता |
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चन्द्रेह में आपका स्वागत है |
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चन्द्रेह मंदिर की लोकेशन |
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चन्द्रेह मंदिर प्रवेश द्वार |
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चन्द्रेह मंदिर की जानकारी देती प्रस्तर पट्टिका |
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चन्द्रेह मंदिर |
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चन्द्रेह मंदिर का शिवलिंग |
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चन्द्रेह मंदिर |
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चन्द्रेह मंदिर |
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चन्द्रेह मंदिर |
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चन्द्रेह मंदिर |
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CHANDREH TEMPLE - SIDHI |
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राजा की गढ़ी अथवा मठ |
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मठ की दीवार पर एक शिलालेख |
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मठ का प्रवेश द्वार |
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राजा की गढ़ी अथवा मठ |
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चन्द्रेह मंदिर |
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चन्द्रेह मंदिर |
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चन्द्रेह मंदिर और मैं |
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चन्द्रेह मंदिर प्रांगण |
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चन्द्रेह गाँव |
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चन्द्रेह से विदा |
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चन्द्रेह गांव का एक दृश्य |
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चन्द्रेह से वापसी |
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शानदार सड़क - चन्द्रेह |
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खूबसूरत वादियां और सोन नदी |
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भँवरसेन का पुल |
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यह भंवरसेन पुल नहीं है, उसी के नजदीक एक पुलिया है जो चन्द्रेह के रास्ते पर है |
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वृक्षों की जड़ें समेटे पहाड़ी |
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भंवरसेन का पुल |
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संजय नेशनल पार्क और परसुली रिसोर्ट जाने का रास्ता |
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सोन नदी |
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भंवरसेन के ठीक सामने का नजारा |
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सोन नदी |
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सोन और बनास का संगम, सामने से सोन आती हुई और साइड से बनास उसमें मिलती हुई |
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दूर से भँवरसेन का नजारा |
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इन्हीं भाई की बाइक पर में भंवरसेन से इनके गाँव तक आया |
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हत्था चौराहा |
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हत्था चौराहा |
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बहेड़ा चौराहा |
अगला भाग - बिलासपुर यात्रा और पाली का शिव मंदिर
इस यात्रा के पिछले अन्य भाग :-
- नीलकंठ महादेव - कालिंजर किला
- लक्ष्मण मंदिर - सिरपुर
- ककनमठ शिव मंदिर - सिहोनियां
- एकहत्तर सौ महादेव मंदिर - मितावली
- पढ़ावली शिव मंदिर - पढ़ावली
- बटेश्वर मंदिर समूह - मुरैना
- बैजनाथ मंदिर समूह - पपरोला
- कर्ण मंदिर - अमरकंटक
- भोजपुर शिव मंदिर - भोजपुर
- कैलाश मंदिर - एलोरा
- खजुराहो मंदिर समूह
- एहोल के ऐतिहासिक मंदिर
- पत्तडकल मंदिर समूह
- भूतनाथ मंदिर - बादामी
- अमृतेश्वर शिव मंदिर - अन्निगेरी
- त्रिकुटेश्वर शिव मंदिर - गदग
- दौड़बासप्पा शिव मंदिर - डम्बल
- लकुण्डी के ऐतिहासिक मंदिर
- महादेवी मंदिर - इत्तगि
- महामाया मंदिर - कुकनूर
- विरुपाक्ष मंदिर - हम्पी
- पाली का शिव मंदिर - कोरबा
- महिषासुर मर्दिनी मंदिर - चैतुरगढ़
- महामाया मंदिर - रतनपुर
- विष्णु वराह मंदिर - कारीतलाई
धन्यवाद
🙏
Nice and detailed description... It is instigating me to visit MP with family.
ReplyDeleteTHANKS SIR
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