Saturday, January 23, 2021

KHAJURAHO

UPADHYAY TRIPS PRESENT'S


खजुराहो के पर्यटन स्थल  - अनमोल भारतीय विरासत 



कोरोनाकाल और घुमक्कड़ी 

    इस वर्ष जब पूरे देश में लॉक डाउन लगा, तो इतिहास में पहली बार भारतीय रेलों के पहिये थम गए। सभी शहर और गाँव, बाजार एवं यातायात तक बंद हो चुका था। लोग कोरोना जैसे वायरस से बचने के लिए अपने ही घरों में कैद हो चुके थे। देश की आर्थिक व्यवस्था पूर्ण रूप से डूबने लगी थी। परन्तु इस सबका पर्यावरण पर बेहद गहरा प्रभाव पड़ा था, नदियों का जल एक दम स्वच्छ होने लगा था। अब शुद्ध वायु का प्रभाव साफ़ दिखलाई पड़ता था। इस बीच हम जैसे घुमक्कड़ लोगों की यात्रायें भी स्थगित हो गईं क्योंकि घर से बाहर निकलना, सरकार के आदेशों का उल्लंघन करना था।  

   सभी यातायात के साधन बंद थे, तीर्थ स्थान अनिश्चितकालीन बंद कर दिए गए थे। सभी ऐतिहासिक स्मारक भी पूर्ण रूप से बंद हो चुके थे और इसके अलावा गैर राज्य में जाना तो दूर अपने नजदीकी शहर में भी जाने पर सख्त प्रतिबन्ध था। इसलिए 24 मार्च 2020 से जून 2020 तक हम सभी अपने अपने घरों में बंद रहे। जून के बाद से सरकार ने देश में अनलॉक जारी कर दिया और भारत की अर्थव्यवस्था धीरे धीरे पटरी पर लौटने लगी। यह हमारे समय का कोरोना काल था जो काफी तबाही मचाकर भी अभी तक शांत नहीं हुआ है।   

रेल संचालन और यात्रा प्लान 

    अभी हाल ही में भारतीय रेलों का पुनः संचालन धीरे धीरे शुरू होने लगा था, दक्षिण भारत और महाराष्ट्र के लिए ट्रेनें स्पेशल नंबर के साथ शुरू हो चुकी थीं। इस बार रेल के सामान्य श्रेणी के कोच में भी आरक्षण की सुविधा उपलब्ध थी और ग़ैर आरक्षित टिकट अभी भी प्रतिबंधित थी। रेलवे ने कुरुक्षेत्र से मथुरा आने वाली ट्रेन को खजुराहो तक बढ़ा दिया था जो कि मध्य प्रदेश का एक मुख्य ऐतिहासिक स्थल है और यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल की सूची में दर्ज है। 

    मैं पहले भी कई बार यहाँ जाने के रिजर्वेशन करवा चुका था किन्तु कभी जाने का मौका नहीं मिला पाया। 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के अवसर पर जो सरकारी अवकाश रहता है उसी अवकाश को मैंने खजुराहो जाने के लिए चुना और अपने दोस्त कुमार भाटिया जो कि आगरा में ही रेलवे में जॉब करता है, अपने साथ जाने को सहयात्री के रूप में चुना। रेलवे से मिलने वाली सुविधा के अंतर्गत उसने अपना और मेरा रिजर्वेशन दोनों तरफ से इसी ट्रेन में करवा लिया और यात्रा की तारीख आने पर हम खजुराहो की तरफ रवाना हो चले। 




मथुरा से खजुराहो रेल यात्रा 

      कुरुक्षेत्र से खजुराहो जाने वाली ट्रेन का समय हमारे लिए बहुत ही सटीक था। रात को लगभग साढ़े नौ बजे ट्रेन मथुरा पहुंची और मैंने ट्रेन के सामान्य कोच में अपनी सीट ग्रहण की। हालांकि यह सिर्फ बैठने के लिए ही आरक्षित थी किन्तु पूरी सीट खाली रहने की वजह से मैं इस पर आराम से सो गया। आगरा से कुमार भी इस ट्रेन में सवार हो गया। उसका आरक्षण AC वाले कोच में था।

     पूरी रात आराम से सोते हुए सफ़र करने के बाद सुबह सुबह जब मैं उठा, तो देखा ट्रेन एक सिंगल रूट पर दौड़े जा रही थी, यह रूट ललितपुर से खजुराहो के मध्य वाला रूट था। मध्य प्रदेश का मुख्य शहर टीकमगढ़ निकल चुका था, छतरपुर जल्द ही आने वाला था। छतरपुर इस रूट का आखिरी बड़ा शहर है, यहाँ लगभग पूरी ट्रैन खाली हो चुकी थी और इसके बाद इसका आखिरी गंतव्य खजुराहो ही था जहाँ कुछ समय बाद हम पहुँच गए थे। स्टेशन पर ही बने वेटिंग रूम में नहाधोकर हम तैयार हो गए और खजुराहो घूमने के लिए निकल पड़े। खजुराहो की दूरी यहाँ  लगभग 8 किमी है।  

KHARGAPUR RAILWAY STATION

 TO KHAJURAHO

ISHANAGAR RAILWAY STATION

CHHATARPUR RAILWAY STATION

KHAJURAHO RAILWAY STATION

खजुराहो : -  एक ऐतिहासिक स्थल 

मध्यप्रदेश में स्थित और उत्तरप्रदेश की सीमा से सटा हुआ खजुराहो यूँ  तो एक छोटा सा गाँव है परन्तु ऐतिहासिक रूप से यह एक महत्वपूर्ण स्थान है। राजपूतकाल के समय दशवीं शताब्दी के समय जब भारतभूमि पर इस्लामिक आक्रमण होने शुरू हो चुके थे तब बुंदेलखंड जो उस समय जोजकभुक्ति के नाम से भी प्रसिद्ध था पर चन्देलवंश के शासकों का अधिकार था। जिनकी राजधानी खजुराहो से  80किमी दूर महोबा थी। 

चंदेलवंश के शासकों  बारे में प्रचलित है कि इनकी उत्पत्ति चन्द्रमा से हुई है, कहा जाता है कि एक ब्राह्मण पुरोहित की कन्या जिसका नाम हेमवती था बहुत ही सुन्दर, रूपवान और सौंदर्य से परिपूर्ण थी जिसके यौवन को देखकर चन्द्रमा उसपर मोहित हो गया और उसने हेमवती के साथ सहवास किया जिससे उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो कालानतर में चन्द्रवर्मन के नाम से विख्यात हुआ। चन्द्रवर्मन से ही चंदेल वंश की उत्पत्ति हुई जिसने जोजकभुक्ति क्षेत्र पर कई वर्षों तक राज्य किया और कालिंजर को अपनी राजधानी बनाया। चन्देलवंश में अनेकों शासक हुए जिनमें से कुछ भारतीय इतिहास में विशेष योगदान रखते हैं -

यशोवर्मन :- 

यशोवर्मन इस वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक थे जिन्होंने  930 ई. से 950ई. तक शासन किया और अपनी नई राजधानी कालिंजर से हटाकर महोबा को बनाया। एक शिलालेख के अनुसार  यशोवर्मन ने कन्नौज  युद्ध को जीतने के बाद भगवान विष्णु की विशाल प्रतिमा को खजुराहो में विशाल मंदिर बनवाकर स्थापित कराया जो आज लक्ष्मण मंदिर के नाम से  प्रसिद्ध है। यशोवर्मन का दूसरा नाम लक्ष्मण वर्मन था इसी कारण इस मंदिर का नाम उन्होंने अपने नाम पर रखा। 

धंगदेव वर्मन :-

धंगदेव वर्मन, लक्ष्मण वर्मन अथवा यशोवर्मन के उत्तराधिकारी हुए जिन्होंने 950ई. से लेकर 1002 ई. तक कुल 52 वर्ष सफलतापूर्वक राज्य किया। अपने शासनकाल दौरान इन्होने अनेक प्रांतों को जीता और चन्देलवंश के राज्य की सीमा का विस्तार किया। धंगदेव भगवान शिव के परम उपासक थे,  अपने जीवन के अंतिम दिनों में सन 1002ई. में इन्होने विश्वनाथ मंदिर का निर्माण खजुराहो में कराया और इसके बाद 102 वर्ष आयु  अपना राज्यभार अपने पुत्र गण्ड देव को देकर जलसमाधि ले ली। 

गण्ड देव वर्मन  :- 

गण्ड देव वर्मन ने सन 1002ई. से लेकर  1017 ई. कुल 15 वर्ष शासन किया और अपने पिता के द्वारा प्राप्त राज्य को यथावत रखा। गण्ड देव के समय में खजुराहो में दो मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमें पहला देवी जगदम्बा का मंदिर है जो मूलतः भगवान विष्णु को समर्पित है और दूसरा सूर्य मंदिर है जो चित्रगुप्त मंदिर के नाम से प्रसिद्द है। 

विद्याधर वर्मन :-

यह इस वंश के सबसे प्रतापी शासक थे जिन्होंने 1017 ई. से लेकर 1029 ई. तक शासन किया । इन्हीं के शासनकाल में महमूद ग़जनवी ने भारत पर आक्रमण किये थे और जब उसने ग्वालियर पर आक्रमण किया तो ग्वालियर के शासक की, विद्याधर ने पूर्ण रूप से उनको सैनिक सहायता प्रदान की और अपने पराक्रम के बल पर उस इस्लामी आक्रमणकारी महमूद गजनवी को भारत छोड़ने पर विवश कर दिया। विद्याधर के शासनकाल में गजनवी ने कभी भी महोबा - खजुराहो की तरफ अपना रुख नहीं किया। विद्याधर ने खजुराहो में सबसे विशाल और प्रसिद्ध कंदरिया महादेव मंदिर का निर्माण कराया। वह चंदेल वंश के सभी राजाओं में सबसे अधिक शक्तिशाली और समृद्ध राजा था। विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् चढेल राजवंश पतनोमुख होता चला गया। 

विजयपाल :- 

विद्याधर की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र विजयपाल शासक बने जिन्होंने 1029 ई. से 1051 ई. तक शासन किया। विजयपाल ने अपने शासनकाल में वामन मंदिर का निर्माण करवाया। विजयपाल के बाद देव वर्मन शासक हुए जिन्होंने 1051 से 1070 ई. तक शासन किया। इनके शासनकाल में महोबा राज्य की अधिकतर सीमा कलचुरी शासकों ने अपने अधीन कर लीं  और चंदेल वंश निरंतर कमजोर होता चला गया। 

कीर्ति वर्मन :- 

देववर्मन के बाद उनका पुत्र कीर्तिवर्मन महोबा के राजसिंहासन पर आसीन हुआ जिसने 1070 से 1098 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया और चंदेल वंश को पतन की ओर जाने से रोका। कीर्तिवर्मन ने कलचुरी वंश के शासक लक्ष्मीकर्ण को बुरी तरह पराजित किया। इसके अलावा देवगढ़ का किला और महोबा कीर्तिसागर नामक एक विशाल झील का निर्माण भी कराया। कीर्तिवर्मन ने अपने शासनकाल में खजुराहो में जवारी मंदिर एवं चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया जिसमें भगवान की अर्धनारीश्वर की दक्षिण मुखी चतुर्भुजी मूर्ति स्थापित करवाई थी। अपने 28 वर्ष के शासन काल में अपने पूर्वजों की तरह ही कीर्तिवर्मन ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया और इसे शक्तिशाली राज्य बनाया। 

मदनवर्मन :- 

कीर्तिवर्मन के बाद चंदेल वंश के अनेक शासक हुए जो की सभी अयोग्य सिद्ध हुए साम्राज्य के विघटन को ना रोक सके। 1129 ई. में चन्देलवंश का एक और प्रतापी राजा हुआ जिसका नाम मदन वर्मन था इन्होने अपने राज्य के विघटन को रोका और उसे पुनः अपने साहस और शक्ति के बल पर एक शक्तिशाली राज्य बनाया। दूल्हादेव का मंदिर इन्ही के शासनकाल के दौरान निर्मित हुआ माना जाता है।  

परमार्दी :-

परमार्दी चंदेल वंश का आखिरी शासक था जिसके दरबार में महोबा के दो वीर योद्धा आल्हा व ऊदल हुए जिनकी वीरता के किस्से आज भी बुंदेलखंड में ही नहीं बल्कि समस्त उत्तर भारत में विख्यात हैं। दिल्ली के प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान और परमार्दी के बीच घोर शत्रुता थी और इनका आपस में भयंकर युद्ध भी हुआ जिसमें परमार्दी को पराजय का मुख देखना पड़ा। 1192 ई. में तराइन के युद्ध के बाद जब दिल्ली की गद्दी पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का शासन स्थापित हो गया तब कुतुबद्दीन ऐबक ने परमार्दी को पराजित कर चंदेल वंश का अंत कर दिया। चंदेल वंश के पतन के साथ ही खजुराहो का महत्त्व भी समाप्त हो गया। 

खजुराहो की स्थापत्य कला

मुस्लिमोत्तर भारत में मुख्यतः तीन प्रकार की स्थापत्य कला का विकास हुआ। जिनमें पहली नागर शैली जो कि अधिकांशतः उत्तर भारत में विकसित हुई। दूसरी शैली वेसर शैली है जो कि कर्नाटक के मैसूर, हैलीबिड और बैलूर के मंदिरों में दिखाई देती है और तीसरी शैली द्रविड़ शैली है जिसका विकास दक्षिण भारत में हुआ जो आज भी दक्षिण के मंदिरों में दिखलाई पड़ती है। खजुराहो के सभी मंदिरों का निर्माण नागर शैली में ही हुआ है। इस शैली की प्रमुख विशेषता है कि मंदिर के गर्भगृह के ऊपरी भाग की ऊँची जगतियां पर्वतों के सदृश्य शिखरों से सुसज्जित होते हैं। 

खजुराहो की मूर्तिकला 

प्राचीन भारत में शिल्पकला के प्रमुख तीन केंद्र थे - गांधार, मथुरा और अमरावती। खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों का निर्माण मथुरा के शिल्पकारों द्वारा किया गया था। मथुरा की शिल्पकला की विशेषता है कि इस कला की मूर्तियों में शरीर की लचक और मुख के भावों को देखकर उस काल की स्थिति का सटीक अनुभव लगाया जा सकता है। एक ही पत्थर से बनी इन मूर्तियों को शिल्पकारों द्वारा चारों ओर से गढ़कर बनाया जाता है। 





खजुराहो के मंदिरों पर कामक्रीड़ा के दृश्य 

खजुराहो के मंदिरों पर उत्कीर्ण काम व मैथुन युक्त मूर्तियां अभी तक विद्वानों के लिए एक रहस्य ही बनी हुई हैं उस समय के सम्राटों द्वारा मंदिर जैसे पवित्र स्थान पर मंदिर की दीवारों पर इस तरह की मूर्तियों को बनाने का क्या कारण था इसके बारे अनेकों विद्वानों में अलग अलग मत प्रचलित हैं -
उस समय में शिल्पकला ही इस तरह की अभिव्यक्तियों का माध्यम थीं इसलिए जन साधारण तक काम-सूत्र के सिद्धांतों को पहुँचाने के लिए इनका अंकन किया गया होगा। 

दूसरा और मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि चंदेल वंश के शासक हिन्दू धर्म के प्रति काफी सहिष्णु थे और अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष पर विशेष बल देते थे और इन चार पुरुषार्थों की सिद्धि करना ही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य मानते थे इसलिए प्रत्येक मंदिर की दीवारों पर अंकित मूर्तियों को गौर से देखने पर इन चारों पुरुषार्थों का चित्रण दिखलाई पड़ता है। 







खजुराहो के क्रमानुसार मंदिर समूह 

खजुराहो के मंदिरों को मुख्यतः तीन समूहों में बाँटा गया है

 1. पूर्वी मंदिर समूह - खजुराहो से पूर्व दिशा की ओर बने मंदिर पूर्वी समूह में गिने जाते हैं जिनमें ब्रह्मा मंदिर, जावरी मंदिर और वामन मंदिर मुख्य हैं। 

2. दक्षिणी मंदिर समूह - दक्षिण दिशा में बने मंदिर दक्षिणी समूह मंदिर में आते हैं जिनमें पार्श्वनाथ के जैन मंदिर, घंटाई मंदिर, दुलादेव मंदिर, चतुर्भुज मंदिर और बीजमंडल के अवशेष शामिल हैं। 

3. पश्चिमी मंदिर समूह - यह मंदिर समूह खजुराहो मुख्य मंदिर समूह है जिसे देखने दूर दूर से लोग यहाँ आते हैं। इस मंदिर समूह में अनेकों मंदिर पास पास बने हुए हैं जिन्हें देखने के लिए पुरातत्व विभाग से उचित टिकट प्राप्त करनी होती है। इन मंदिर समूहों में सबसे मुख्य कंदरिया महादेव मंदिर है जिसकी दीवारों पर कामसूत्र दर्शाती मूर्तियां अवलोकित हैं इसके साथ वराह मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, देवी जगदम्बा मंदिर, लॉयन मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, विश्वनाथ मंदिर, नंदी मंडप, पार्वती मंदिर और प्रतापेश्वर मंदिर शामिल हैं। 

इनके अलावा पश्चिमी मंदिर समूह में चौंसठ योगिनी मंदिर, ललगुंवा का महादेव मंदिर और मतंगेश्वर महादेव मंदिर भी शामिल हैं। मतंगेश्वर महादेव मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें आज भी लोग अपने आराध्य की पूजा अर्चना करते हैं।  
 
खजुराहो में किराये की बाइक 

      स्टेशन के बाहर बनी एक दुकान से चाय पीने के बाद हम एक ऑटो द्वारा रेलवे स्टेशन से आठ किमी दूर स्थित खजुराहो पहुंचें, जहाँ चंदेलकालीन प्राचीन मंदिर दर्शनीय थे। इस क्षेत्र में अलग अलग स्थानों पर काफी ऐतिहासिक मंदिर बने हुए हैं जिन्हें एक दिन में घूम पाना लगभग असंभव है। खजुराहों में पश्चिमी समूह के मंदिर अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।

     पश्चिमी मंदिर समूह के समीप ही एक बिलाल भाई की बाइक की दुकान है जो खजुराहो घूमने आने वाले पर्यटकों को उचित मूल्य पर रेंटल बाइक और साइकिल उपलब्ध करवाते हैं। बिलालभाई बहुत ही व्यवहारिक और मिलनसार व्यक्ति हैं और अपने यहाँ आये पर्यटकों का विशेष ध्यान रखते हैं। हमने बिलाल भाई से एक प्लेज़र स्कूटर रेंट पर लिया और यहीं पास में बने एक रेस्टोरेंट से स्वादिष्ट पराठा खाकर हम खजुराहो घूमने निकल पड़े। 




खजुराहो की यात्रा 

सर्वप्रथम हम खजुराहो गाँव पहुँचे जहाँ पूर्वी समूह के मंदिर दृष्टिगोचर होते हैं जो निम्नलिखित हैं - 

1. ब्रह्मा मंदिर - 930 ई. में बने इस मंदिर के दरवाजे के दोनों और गंगा और यमुना की मूर्तियाँ दिखाई देती हैं और इसके गर्भगृह में मूर्ति के रूप में चतुर्मुखी शिवलिंग दिखाई देता है जो परमपिता ब्रह्मा जी के चारों मुखों को दर्शाता है इसी कारण इसे ब्रह्मा मंदिर कहा जाता है।  ब्रह्मा मंदिर खजुराहो की झील के किनारे स्थित है। यह सबसे प्राचीन और छोटा मंदिर है। 





2. जावरी मंदिर :- ब्रह्मा मंदिर से थोड़ा आगे चलने पर लोहे के रेलिंगों के बाड़े के बीच एक ऊँचा मंदिर दिखलाई पड़ता है जो जावरी मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण कीर्तिवर्मन ने सन 1080 से 1090 ई. के मध्य कराया था।  यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है जिसके गर्भगृह में आज भी उनकी सिर रहित मूर्ति देखि जा सकती है। इस मंदिर में मंडप और गर्भगृह दो ही भाग हैं फिर भी मंदिर की रचना को देखकर इसकी सुंदरता को नकारा नहीं जा सकता। 










3. वामन मंदिर - जावरी मंदिर से थोड़ा आगे बढ़ने पर वामन मंदिर दिखाई देता है। यह मंदिर भगवान विष्णु के पाँचवे अवतार वामन भगवान को समर्पित है जिन्होंने माता अदिति के गर्भ से जन्म लेकर एक बौने ब्राह्मण के रूप में भिक्षुक बनकर भक्त प्रहलाद के पौत्र राक्षसराज राजा बलि से तीन पग धरती माँगकर एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में समस्त भूमण्डल नाप लिया था। जब राजा के पास तीसरे पग में नापने के लिए कुछ नहीं बचा तो उन्होंने भगवान् वामन का तीसरा पग अपने सिर पर धारण किया और इस प्रकार अपने वचन को पूरा किया। उन्हीं भगवान वामन का यह मंदिर चंदेल नरेश विजयपाल ने 1050 से 1070 ई. के मध्य कराया।  इस मंदिर की दीवारों कोई भी आलिंगन करती या कामक्रीड़ा की मूर्ति नहीं है।  मंदिर के गर्भगृह में भगवान् वामन की मूर्ति विशेष दर्शनीय है। 






 पूर्वी मंदिर समूह देखने के बाद मैं और कुमार रानेह जलप्रपात देखने खजुराहो से 20 किमी दूर चले थे जिसके बाद लौटकर हमने दक्षिणी मंदिर समूह को देखा। रनेह जलप्रपात, केन घड़ियाल अभ्यारण्य और राजनगर स्थित कूटनी डैम का विवरण हम अंत में आपको बतलायेंगे उससे पहले आप खजुराहो के दक्षिणी मंदिर समूह के दर्शन कीजिये। 

दक्षिणी मंदिर समूह 

1. घंटाई मंदिर :- 

    खजुराहो गाँव से दक्षिण दिशा में चलने पर घंटाई मंदिर दिखाई देता है। इस मंदिर की दीवारों पर शिल्पकला के रूप में सांकलों से बंधी सुन्दर घंटियां दिखाई देती है इसी कारण इसे घंटाई मंदिर कहते हैं। इस मंदिर में केवल इसका छत रहित मंडप और प्रवेश द्वार ही शेष बचा है। मंडप के स्तम्भों पर बनी जैन देवताओं की मूर्तियों से इसके जैन मंदिर होने की पुष्टि होती है। 





2. दुलादेव मंदिर :-

     घंटाई मंदिर से थोड़ा आगे चलने पर  एक विशाल प्रांगण में एक मंदिर दिखलाई देता है जिसका शिखर अब क्षतिग्रस्त है। यह मंदिर दुलादेव या दूल्हादेव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस मंदिर का निर्माण 1125 ई. में चंदेल राजा मदनवर्मन के द्वारा माना जाता है।  









3. चतुर्भुज मंदिर :- 

     भगवान शिव की अर्धनारीश्वर चतुर्भुजी दक्षिणमुखी प्रतिमा के दर्शन कराता चतुर्भुज मंदिर आकार में अन्य मंदिरों से भले ही छोटा हो किन्तु भगवान शिव की जो मूर्ति इस मंदिर के गर्भ में दिखलाई देती है वह अत्यंत कहीं दिखाई नहीं देती। इस मंदिर का निर्माण कीर्तिवर्मन ने जावरी मंदिर के साथ ही करवाया था। 






4. बीजमंडल के अवशेष : - 

     पूर्ण रूप से ध्वस्त बीजामंडल अब केवल धरातल ने निर्माण ही शेष बचे हैं जो एहसास करवाते हैं कि एक समय यहाँ एक विशाल मंदिर खड़ा होगा जिसके अवशेष अब यत्र तत्र दिखलाई पड़ते हैं। मंदिर का मंडप, गर्भगृह अब कुछ भी शेष नहीं बचा है। पुरातत्व विभाग ने खुदाई करके इसके अवशेषों को इकठठा करके यहाँ एक बौद्ध मंदिर होने के पुष्टि की है। मंदिर की धरातल सरंचना अब भी बहुत ही अच्छी स्थिति में दिखलाई देती है जिसकी दीवारों बानी हुई आकृतियां इसके विशाल मंदिर होने की पुष्टि करती हैं। यह मंदिर अन्य मंदिरों की अपेक्षा क्यों धरासाई हुआ इसका कारण अज्ञात है। पुरातत्व विभाग की ओर से इसे बौद्ध मंदिर माना गया है किन्तु मंदिर के खंडहर के ऊपर रखा विशाल शिवलिंग अब इसे शिव मंदिर के रूप में ही दर्शाता है। 













पश्चिमी समूह के मंदिर

1. चौंसठ योगिनी मंदिर :- 

     छठवीं शताब्दी में बना यह मंदिर खजुराहो का सबसे प्राचीन और प्रथम मंदिर है जो चंदेलवंशीय राजाओं के तीन सौ वर्ष पूर्व ही अस्तित्व में था। इस मंदिर के खजुराहो में होने से यह प्रमाणित होता है कि चंदेल राजाओं से पूर्व यहाँ तंत्र दर्शन का अधिक प्रभाव था क्योंकि चौंसठ योगनियों की पूजा मुख्यतः तांत्रिकों द्वारा ही की जाती थी। चौकोर आकार में बने इस मंदिर में 67 छोटे छोटे गर्भ गृह स्थित थे जिनमें चौसठ योगनियों के अलावा अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां भी होती थीं जो कालान्तर में दिखलाई नहीं पड़ती हैं। इस मंदिर से कंदरिया महादेव मंदिर को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। चौसठ योगिनी मंदिर पूर्णतः लावा पत्थरों से निर्मित है। 








2. मतंगेश्वर मंदिर :- 

     चंदेल राजाओं के अस्तित्व में खजुराहों में बना यह पहला मंदिर है जो भगवान् शिव को समर्पित है।  इस मंदिर का निर्माण यशोवर्मन के पिता हर्षवर्मन ने अपने शासनकाल के दौरान 950 ई. के आसपास करवाया था। खजुराहो के पुरातत्व मंदिरों में यही एक मात्र ऐसा मंदिर है जिसमें आज भी पूजा अर्चना होती है और जनश्रुति है कि यह पूजा अर्चना इस मंदिर के निर्माण काल से ही चली आ रही है। इसकारण मतंगेश्वर महादेव को खजुराहो के कुलदेवता के रूप में आज भी पूजा जाता है। 





3. वराह मंदिर :- 

      भगवान् विष्णु के तीसरे अवतार वराह भगवान् को समर्पित यह मंदिर आकार में छोटा और पिरामिड शैली में निर्मित है जिसमें भगवान विष्णु की वराह रुपी मूर्ति के दर्शन होते हैं जिनकी पीठ पर हर तरफ हिन्दू देवी देवताओं की छोटी छोटी मूर्तियां अंकित हैं। वराह भगवान की यह मूर्ति सतयुग की उस घटना को याद दिलाती है जब हिरण्याक्ष नामक दैत्य समूची पृथ्वी को समुद्र की गहराइयों से दूर रसातल में ले गया तब पृथ्वी की करुण पुकार सुनकर भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण किया और हिरण्याक्ष का वध करके पृथ्वी को रसातल से बाहर लेकर आये थे।  








4. लक्ष्मण मंदिर :-

       मतंगेश्वर मंदिर के बाद खजुराहो का सबसे बड़ा दूसरा मंदिर लक्ष्मण मंदिर है जो भगवान विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण 930ई. के लगभग हर्षवर्मन के पुत्र यशोवर्मन ने करवाया था। यशोवर्मन का दूसरा नाम लक्ष्मण वर्मन भी था इसलिए इस मंदिर को लक्ष्मण मंदिर कहा जाता है। पंचायतन शैली में बना यह मंदिर अन्य मंदिरों से अलग और सुन्दर दृष्टिगोचर होता है क्योंकि इस मंदिर के चारों कोनो पर अलग अलग चार मंदिर बने होते हैं और मुख्य मंदिर के ठीक सामने पाँचवाँ मंदिर है जो अब लक्ष्मी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इसप्रकार पंचायतन शैली में बने होने के कारण यह मंदिर अन्य मंदिरों से अलग दिखाई देता है। मंदिर की दीवारों पर शानदार मूर्तियां अंकित हैं। 










5. विश्वनाथ मंदिर :- 

      लक्ष्मण मंदिर के बाद सन 1002ई. में महाराज धंगदेव वर्मन ने इस मंदिर का निर्माण करवाया जो कि भगवान शिव को समर्पित है ।  इस मंदिर का निर्माण भी लक्ष्मण मंदिर की तरह पंचायतन शैली में हुआ था किन्तु गुजरते समय के साथ इसके चारों कोनों में से दो कोनों के उपमंदिर नष्ट हो चुके हैं बाकी दो मंदिर अभी भी क्षतिग्रस्त अवस्था में दर्शनीय हैं। मुख्य मंदिर के ठीक सामने पाँचवाँ मंदिर है जो नंदी मंडप कहलाता है। इसमें भगवान् शिव के वाहन नंदी की विशाल मूर्ति के दर्शन होते हैं। महाराज धंगदेव ने अपनी काशी विजय के अवसर पर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। 


















6. पार्वती मंदिर :- 

     विश्वनाथ मंदिर के समीप ही पार्वती मंदिर स्थित है जो माता पार्वती को समर्पित है। इसका निर्माण कब और किसने करवाया यह अज्ञात है। सन 1880 ई. में चुने और ईंट से इसका पुनः निर्माण किया गया है बाकी आधे भाग को देखने से इसके पुरातात्विक होने की पुष्टि होती है। 






7. चित्रगुप्त मंदिर :- 

     धंगदेव के पुत्र गण्डदेव वर्मन द्वारा निर्मित यह मंदिर 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बना था। खजुराहो में बने मंदिरों में केवल एकमात्र यही सूर्यमंदिर है जिसका नाम हिन्दू धर्म के उपदेवता चित्रगुप्त के नाम पर रखा गया है जिनके बारे में मान्यता है कि वे पृथ्वी के मनुष्यों के कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं। मंदिर के गर्भगृह में सूर्य भगवान के साथ साथ खंडित अवस्था में चित्रगुप्त की भी मूर्ति के दर्शन होते हैं। 






8. देवी जगदम्बा मंदिर :- 

     यह मंदिर भी महाराज गण्डदेव वर्मन द्वारा ही निर्मित है जो कि मूल रूप से भगवान विष्णु को समर्पित था किन्तु 1880ई. में छतरपुर के महाराज ने मनियागढ़ से माता पार्वती की मूर्ति यहाँ लाकर प्रतिष्ठित की इसकारण इसे देवी जगदम्बा मंदिर कहा जाने लगा। मंदिर के गर्भगृह में जहाँ माता पार्वती की मूर्ति के दर्शन होते हैं ठीक उनके पीछे एक खाली स्थान दिखलाई पड़ता है जहाँ पहले भगवान विष्णु की मूर्ति स्थापित थी। 








9. कंदरिया महादेव मंदिर :- 

       गण्डदेव वर्मन के पुत्र और चन्देलवंश के सबसे प्रतापी शक्तिशाली सम्राट विद्याधर द्वारा 1065ई.  निर्मित यह मंदिर खजुराहो के सबसे विकसित मंदिरों में से एक है और साथ ही स्थापत्य कला का एक अनूठा उदहारण है। कहा जाता है कि जब महाराज विद्याधर ने महमूद गजनवी को दूसरी बार भी परास्त कर दिया तो उन्होंने इसे स्वयं के ऊपर भगवान शिव की विशेष कृपा का होना माना और अपने इसी विश्वास के साथ उन्होंने इस मंदिर का निर्माण कराया जो आज खजुराहो सबसे विख्यात और प्रसिद्ध मंदिर है। मंदिर के गर्भगृह में संगमरमर से बना शिवलिंग स्थापित है जो देखने में अमरनाथ के सदृश दिखलाई देता है। कंदरिया महादेव मंदिर की ऊंचाई और लम्बाई 117 फुट है और चौड़ाई 66 फुट है इसकारण गौर से देखने पर यह किसी कंदरा अथवा गुफा के समान दिखलाई देता है इसी कारण इसका नाम कंदरिया महादेव मंदिर रखा गया। इस मंदिर की बाहरी दीवारों शानदार मूर्तिकला के दर्शन  होते हैं जिनमें मैथुन और कामक्रीड़ा की मूर्तियां देखने योग्य हैं। 










10. लॉयन मंदिर या महादेव मंदिर :-

     कंदरिया महादेव मंदिर और देवी जगदम्बा मंदिर के बीच में महादेव का एक छोटा सा मंदिर दिखाई देता है जिसमें चन्देलवंश के पहले राजा चन्द्रवर्मन को सिंह से लडते हुए दिखाया गया है और सिंह की मूर्ति के पीछे महादेव जी का शिवलिंग भी स्थापित है। सिंह से लड़ते हुए राजा की यह मूर्ति ही चंदेल राजाओं का राजकीय चिन्ह भी था। 





11. प्रतापेश्वर मंदिर :- 

      यह मंदिर 1784 से 1854 ई. के मध्य छतरपुर के महाराज प्रताप सिंह द्वारा बनवाया गया जिसकारण इसका नाम प्रतापेश्वर मंदिर रखा गया। यह मंदिर मध्ययुगीन वास्तुकला का अंतिम उदाहरण है जिसमें कुछ अंश चंदेल वंश की कला के भी देखे जा सकते हैं। 






खजुराहो के मंदिर दूरदृष्टि से 








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