Tuesday, December 4, 2018

Kalinger Fort



कालिंजर किले की तरफ एक सफर





सहयात्री - गंगा प्रसाद त्रिपाठी जी

       पिछली साल जब सासाराम गया था तब वहां मैंने शेरशाह सूरी के शानदार मकबरे को देखा था और वहीँ से मुझे यह जानकारी भी प्राप्त हुई थी कि उसने अपना यह शानदार मक़बरा अपने जीवनकाल के दौरान ही बनबा लिया था। सम्पूर्ण भारत पर जब मुग़ल साम्राज्य का वर्चस्व कायम हो रहा था उनदिनों मुग़ल सिंहासन पर हुमाँयु का शासनकाल चल रहा था और उन्हीं दिनों हूमाँयु के पिता और मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने बिहार में एक आम सैनिक को अपनी सेना में भर्ती किया, इस सैनिक की युद्ध नीति और कुशलता को देखते हुए बाबर ने इसे अपना सेनापति और बिहार का सूबेदार नियुक्त कर दिया था। तब बाबर ने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि यही आम सैनिक आगे चलकर बाबर द्वारा स्थापित किये गए मुग़ल साम्राज्य को समाप्त कर अपना राज्य स्थापित करेगा और उसके बेटे हूमाँयु को हिंदुस्तान छोड़ने पर मजबूर कर देगा।


     यह आम सैनिक और कोई नहीं शेरशाह सूरी ही था जिसने हूमाँयु को कभी मुग़ल साम्राज्य का शाही आनंद चैन से प्राप्त नहीं होने दिया, और चौसा सहित बिलग्राम के युद्ध में हराकर देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया और स्वयं दिल्ली की गद्दी पर बैठकर खुद को सुल्तान ए हिन्द घोषित किया। हालांकि वह हिंदुस्तान का सुल्तान तो बन गया पर वह मुगलों से बेखबर नहीं था उसे कहीं न कहीं यह एहसास था कि मुग़ल अपना राज्य खोकर चैन से नहीं बैठने वाले और उसकी आने वाली जिंदगी में युद्धों की संभावना प्रबल थी, यही सोचकर उसने अपना मकबरा जीवनकाल के दौरान ही बनवा लिया। 

    परन्तु शेरशाह एक कुशल शासक था, उसके रहते हूमाँयु ने कभी हिंद की तरफ अपना रुख नहीं किया और हिंदुस्तान पर सूरी वंश कायम रहा। पांच साल हिंदुस्तान पर राज करने के बाद शेरशाह सूरी के कदम कालिंजर किले को जीतने की तरफ बढ़ चले पर शायद वो नहीं जानता था कि उसके कदम कालिंजर की तरफ नहीं उसकी मृत्यु की तरफ बढ़ रहे थे और देश का ये महान शासक कालिंजर किले पर आकर अपने जीवन को खो बैठा।

     देश के अधिकतर किलों में कालिंजर किले का नाम बड़े अदब से लिया जाता है क्योंकि इस किले को जीतने के लिए देश के बड़े बड़े राजाओं और सुल्तानों ने बड़ी मेहनत की है यहाँ तक की अपने प्राण भी दांव पर लगा दिए किन्तु इस किले में स्थित नीलकंठ महाराज की ऐसी कृपा कालिंजर वासियों पर यही है कि कोई इसे जीत नहीं सका। दरअसल इस किले का ऐतिहासिक महत्व तो है ही, साथ ही इसका पौराणिक महत्व भी है। समुद्र मंथन के दौरान जब समुद्र से हलाहल विष उत्पन्न हुआ तो उसे महादेव शिव शंकर ने संसार की रक्षार्थ स्वयं पी लिया परन्तु अपने गले से उसे नीचे नहीं उतरने दिया, इस कारण उनका कंठ ( गला ) नीला पड़ गया जिसकारण उन्हें नीलकंठ भी कहा जाता है। 

     विष को पीने के पश्चात जब विष की गर्मी महादेव से सहन नहीं हुई तो पृथ्वी पर विंध्य माला के पूर्वी छोर पर स्थित एक पर्वत की छाया के नीचे उन्होंने स्थान ग्रहण किया, यह पर्वत धरती  से काफी ऊँचा था और इस पर्वत के अंदर जल की विशाल मात्रा थी जिसने महादेव के अंदर उतपना हुई विष की गर्मीं को शांत किया महादेव को विष के काल से मुक्ति प्रदान की। तभी से इस पर्वत का नाम कालिंजर हुआ जिसका अर्थ है काल पर विजय प्राप्त करने वाला। यहाँ महादेव एक शिवलिंग के रूप में आज भी विराजमान हैं और पर्वत के विशाल जल से उनका रुद्राभिषेक आज भी निरंतर होता रहता है।

     इस पर्वत पर किले का निर्माण कब और किसने कराया इस बारे में इतिहासकारों में आज भी मतभेद हैं और इसका स्पष्टीकरण अभी अज्ञात है। कहते हैं यह दुर्ग सतयुग में कीर्तिनगर के नाम से जाना जाता था, रामायण कल में त्रेतायुग के दौरान मध्यगढ़ कहलाया और द्धापर युग के दौरान यह स्थान सिहंलगढ़ कहलाया जिसपर चेदि वंश के शासक शिशुपाल का शासन था जिसका वध श्री कृष्ण ने किया था। कलयुग में यह स्थान कालिंजर कहलाया। कालिंजर का किला जमीन से लगभग 1203 फ़ीट ऊंचाई पर स्थित है और आकर में इसका क्षेत्रफल 21336 वर्ग किमी है।

    जोजकभुक्ति साम्राज्य का हिस्सा बनने के बाद इस किले पर चन्देलों का आधिपत्य स्थापित रहा और चन्देलों के शासनकाल के दौरान ही इस किले पर अनेकों आक्रमण शुरू हो गए, जिनमें महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेरशाह सूरी के आक्रमण मुख्य हैं जिन्होंने इस्लाम धर्म के प्रसार के लिए इस किले में बने हिन्दू देवी देवताओं के मंदिरों और उनकी मूर्तियों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया। शेरशाह सूरी ने जब नीलकंठ मंदिर पर उक्का नामक तोप से गोला दागा तो वह गोला मंदिर की दीवार से टकराकर वापस तोप पर आकर फट गया जिससे तोप पर अपनी कमान संभाले खड़े हुए शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई और अंततः इस्लाम धर्म के अनुयायियों का इस किले पर अधिकार नहीं हो सका। 

    मुग़ल साम्राज्य का शासन आने के बाद सम्राट अकबर का यहाँ शासन अवश्य स्थापित हुआ जिसका मुख्य कारण यह था कि अकबर एक मात्र ऐसा शासक था जो इस्लाम धर्म के होने के बाबजूद, उनके हृदय में सभी धर्मों का आदर था और वह खुद भी हृदय से एक धार्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। कहते हैं इस किले पर विजय प्राप्त करने से पहले उन्होंने नीलकंठ महाराज से अपनी विजय हेतु प्रार्थना की और बिना किसी को नुकसान पहुंचाये इस किले पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। सम्राट अकबर के बाद जहाँगीर, शाहजहां ने इस किले की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया हाँ औरंगजेब ने अवश्य यहाँ कुछ द्वारों का निर्माण कराया। इसके बाद इस किले का शासन बुन्देल राजा छत्रसाल के हाथों में आ गया और तत्पश्चात अंग्रेजों का इस दुर्ग पर अधिकार हो गया।

     मेरी फेसबुक ID पर मेरे एक मित्र हैं गंगा प्रसाद त्रिपाठी जी। हालांकि मैं कभी उनसे मिला नहीं था केवल फेसबुक के जरिये ही हमारी मित्रता हुई और बातें होती रहीं। वो बाँदा के पास बबेरू में रहते हैं। जब मैंने कालिंजर जाने का प्लान बनाया तो अपने इस प्लान की जानकारी से मैंने त्रिपाठी जी को भी अवगत कराया और वह ख़ुशी ख़ुशी मेरे साथ कालिंजर चलने के लिए सहमत हो गए। मैंने उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति में अपना दोनों तरफ से रिजर्वेशन कराया और 3 दिसंबर की रात मैं कालिंजर के लिए घर से निकल गया। मैंने पहले ही अपना रिजर्वेशन करवा लिया था इस वजह से मुझे ट्रेन में मेरी सीट कन्फर्म मिली। सुबह सुबह जब मेरी आँख खुली तो देखा ट्रेन एक स्टेशन पर खड़ी हुई थी, मैं ट्रेन से उतरा तो देखा यह मटौंध रेलवे स्टेशन है। 




       स्टेशन के बाहर ही मटौर जाने का रास्ता है जो यहाँ से थोड़ी दूरी पर स्थित है। अगला स्टेशन बाँदा था और सात बजे करीब मैं बाँदा पहुँच गया। बाँदा स्टेशन पर बने वेटिंग रूम में, मैं स्नान करने और तैयार होने के मकसद से जब गया तो पता चला इस पर ताला लगा हुआ था यह सर्विस में नहीं था। मेरे मन में बाँदा स्टेशन की कोई खास छवि नहीं बन पाई और यहाँ की सुविधाएँ किसी भी यात्री के लिए सुविधाजनक नहीं थीं। वेटिंगरूम केवल वेटिंग के उपयोग के लिए खुला था और क्लॉकरूम में बैठने वाले बाबू का कोई अतापता नहीं था, जब पता किया तो पता चला सुबह 9 साहब आएंगे तब ही क्लॉकरूम खुलेगा। स्टेशन पर ही मैंने त्रिपाठी जी को फोन लगाया तो पता चला वो अपने घर  चुके हैं बाइक पर और थोड़ी बहुत देर में स्टेशन पहुँचने वाले हैं।

      त्रिपाठी जी का घर यहाँ से लगभग 50 - 60 किमी है और मेरी वजह से उन्हें ऐसी सर्दी मे बाइक से घर से निकलना पड़ा। स्टेशन पर ही मैंने कालिंजर का बोर्ड नहीं लगा देखा था जिसके अनुसार कालिंजर यहाँ का एकमात्र दर्शनीय स्थल है जो यहाँ यहाँ से करीब 60 किमी दूर है। मैं स्टेशन के बाहर आया और एक चाय की दुकानपर चाय पी।  यह बुंदेलखंडी चाय थी जो मुझे बहुत पसंद आई। यहाँ गुटखों की भरमार है और सर्वाधिक गुटखे का आनंद यहाँ बड़े चाव से लिया जाता है। मैं स्टेशन के बाहर बने सुलभ कॉम्प्लेक्स में तैयार  त्रिपाठी जी का इंतज़ार करने लगा।  समय में त्रिपाठी जी भी अपने एक मित्र के साथ स्टेशन आ गए और उन्होंने एक नजर में ही मुझे पहचान लिया।



      यह मेरी और  त्रिपाठी जी की पहली मुलाकात थी जो हमेशा के लिए मेरे दिल में एक यादगार बनकर रह गई और हमेशा रहेगी। त्रिपाठी जी, अपने मित्र सहित मेरे साथ एक नाश्ते की दुकान पर गए और गर्मागर्म पकोड़ों साथ हमने फिर से बुंदेलखंडी चाय आनंद लिया। त्रिपाठी जी के मित्र को बाँदा में कुछ काम था इसलिए वो अपने काम से चले गए। मैं और त्रिपाठी जी क्लॉकरूम बैग जमा करने आये परन्तु मैंने अपना बैग यहाँ जमा नहीं किया बल्कि त्रिपाठी जी ने अपने एक जानकार के यहाँ रखवा दिया और फिर उसके बाद मैं और त्रिपाठी जी कालिंजर की ऐतिहासिक यात्रा पर निकल पड़े। 



      बाँदा से दक्षिण दिशा की तरफ एक रास्ता गया है जो कालिंजर होकर गुजरता है। दिसंबर की शुरुआती सर्दी और सुबह की खुशनुमा धूप हमारी इस यात्रा को काफी रोमांचक बना रही थी। त्रिपाठी जी बाइक बड़े ही आराम से शानदार तरीके से चला रहे थे और मुझसे अपनी सारी बातें भी बताते जा रहे थे। त्रिपाठी जी के साथ बातचीत के दौरान ऐसा लग रहा था जैसे यह हमारी पहली मुलाकात नहीं थी बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे मानो हम कितने वर्षों के बाद मिलें हों। यह क्षेत्र बुंदेलखंड कहलाता है, बाँदा से निकलने के बाद ग्रामीण जनजीवन शुरू हो जाता है, हमारी राह में कई सारे बुंदेलखंडी गांव आये जो देखने पर मुझे ऐसे लगते थे जैसे मैंने दीपावली पर मिलने वाले पोस्टरों में देखे हुए थे। 




     बैलगाड़ियाँ, मिट्टी से बने हुए मकान और पेड़ पौधों के बीच बने हुए ये घर किसी प्राकृतिक स्थल से कम नहीं थे। आज भी मेरे देश में लोग कच्चे मकानों में रहते हैं ये मैंने यहाँ आकर महसूस किया। इस घरों की छतें खपरेल से पटी हुई थीं और हर तरफ बड़े बड़े वृक्ष यहाँ की सुंदरता और बढ़ा रहे थे। घरों के बाहर बनी हुई रंगाई पुताई और चित्रकारी बुंदेलखंड की लोकशैली को बहुत ही खूबसूरती से दर्शा रही थीं। बांदा से कालिंजर जाने वाला यह मार्ग भी काफी अच्छा बना हुआ है कुछ समय बाद मैंने देखा उत्तर प्रदेश की सीमा समाप्त हो गई और मध्य प्रदेश शुरू हो गया, यह मध्य प्रदेश का पन्ना था और थोड़ी देर बाद हम फिर से उत्तर प्रदेश की सीमा में आ गए। कालिंजर उत्तर प्रदेश में ही आता है इसलिए हम उत्तर प्रदेश से कहीं बाहर जाने वाले थे। 







      त्रिपाठी जी ने रास्ते में एक पहाड़ की तरफ इशारा करते हुए बताया कि पिछली बार वो इस स्थान तक ही आये थे, यह स्थान विंध्यवासिनी देवी के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ कालिंजर से लौटने के बाद दर्शन करने के लिए हमने विचार किया और माँ को प्रणाम कर आगे बढ़ गए। कुछ समय बाद हम कालिंजर में थे, कालिंजर नामक पहाड़ पर किले की चारदीवारी बहुत ही छोटी से नजर आ रही थी। वास्तव में यह किला बहुत ही ऊँचाई पर था। मैं और त्रिपाठी जी बाइक द्वारा इस किले तक चढ़ते गए। सबसे पहले किले में हमें एक ताल नजर आया जिसके पास कुछ पुराने मंदिरों के खंडहर और महलों के अवशेष थे और तालाब के चारों तरफ पक्की सीढ़ीयां से बनी हुई थीं। त्रिपाठी जी की नजर से यह समय का स्नानागार हो सकता है और मेरी नजर से भी। 



     यहाँ जब हम आगे बढ़े तो किले में प्रवेश करने से पहले टिकटघर बना हुआ है जहाँ से 25 /- रूपये प्रवेश शुल्क के साथ ही अंदर प्रवेश किया जाता है। अंदर प्रवेश करने के पश्चात् हम मुख्य गेट पर जो गए कालिंजर का मुख्य दरवाजा कहलाता है। यह अंदर से बंद था और यहाँ कोई चौकीदार भी नहीं था जिससे हम ये दरवाजा खुलवाकर देख सकते। इस दरवाजे के बाहर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं जिसका मतलब है कि ये किले तक आने का पैदल मार्ग है। गर कोई नीचे से इन सीढ़ियों द्वारा पैदल चढ़कर आता भी है तो इतनी ऊँचाई पर चढ़ने के बाद उसे केवल निराशा ही हाथ लगनी है क्योंकि किले का दरवाजा अधिकतर बंद ही रहता है,  इसलिए किले तक पहुँचने के लिए केवल सड़क मार्ग ही उत्तम है। यहीं पास में ही एक पुराना महल नजर आता है जिसका नाम चौबे महल है। 

      चौबे महल से कुछ आगे बढ़ने पर वेंकटेश बिहारी  मंदिर और बुंदेला रानी का महल भी दिखाई देता है।  इन्हें  देखने  जब हम कुछ आगे बढे तो एक मस्जिद हमें दिखाई दी जो कुछ अलग ही प्रकार की मस्जिद थी इसके सामने शनि कुंड है और इस कुंड के बराबर से एक कच्चा रास्ता कुछ पुराने खंडहरों की तरफ ले जाता है। त्रिपाठी जी की वजह से मेरी इस किले को देखने की इच्छा पूरी हो गई अन्यथा यह किला इतना बड़ा और सुनसान है कि इसकी विजिट करना अकेले और पैदल आदमी के लिए कदापि संभव नहीं है और यदि कोई कोशिस करे तो एक दिन इस किले को घूम तो सकता है परन्तु पैदल और अकेले होने के कारण इसका कोई ना कोई भाग बिना देखे अवश्य रह जायेगा। 

     यहाँ से हम कालिंजर किले के मुख्य अवशेषों और बुंदेला राजा अमान सिंह के महलों की तरफ बढ़ चले। यह महल इस किले के मुख्य जलाशय कोटितीर्थ है के पास स्थित है। यहाँ शत्रुओं द्वारा नष्ट किये गए ऐतिहासिक अवशेष भी देखने को मिलते हैं पुराने हिन्दू मंदिरों के अवशेष और पत्थर आज भी कालिंजर की भव्यता की याद दिलाते हैं।  वो समय ही अलग होगा जब यहाँ राजशाही जीवन होता होगा। कालिंजर का किला पहाड़ की चोटी पर एक  बड़े खुले मैदान में स्थित है जिसकी दीवारें कालिंजर पर्वत को चारों ओर से घेरे हुए आज भी मजबूत खड़ी हुईं हैं। यहाँ एक वनवासी श्री राम का मंदिर भी है मंदिर के पुजारी ने हमें बताया कि वनवास के दौरान भगवान श्री राम यहाँ आये थे और इस किले में ठहरे थे परन्तु मुझे पुजारी जी की बात में कोई सच्चाई नजर नहीं आई क्योंकि त्रेतायुग के दौरान यह किला मध्यगढ़ से जाना जाता था और भगवान श्री राम वनवास के दौरान कभी किसी नगर या किले में प्रवेश नहीं करते थे। 

      यहाँ से बाइक उठाकर त्रिपाठी जी सीधे नीलकंठ की तरफ रवाना हो गए जो इस किले के मुख्य आराध्य और कुल देवता हैं। नीलकंठ महाराज जी का मंदिर किले और धरती के बीच पहाड़ की तलहटी में स्थित है। किले से काफी सीढ़ियां नीचे उतरने के बाद हमें पौराणिक हिन्दू संस्कृति के दर्शन होते हैं और साथ ही विदेशी आक्रांताओं द्वारा इन्हें नष्ट करने की कोशिस भी। नीलकंठ जी का मंदिर पहाड़ के अंदर गुफा में स्थित है जिनपर प्राकृतिक रूप से निरंतर जलाभिषेक होता रहता है जिसका मुख्य कारण है किले के नीचे और कालिंजर पहाड़ के अंदर विशाल जल के स्त्रोत का होना। नीलकंठ महादेव के शिवलिंग के ऊपर पहाड़ की दीवारें या छत है उसमे प्राकृतिक रूप से पानी का विशाल भंडार है और वही जल रिस रिस कर नीलकंठ जी के शिवलिंग और यहाँ दीवारों पर उकेरी गईं हिन्दू देवी देवताओं की मूर्ति पर बहता रहता है। 

      यहाँ शिव जी की अष्टमुखी प्रतिमा भी पहाड़ को काटकर उकेरी गई है जो उस समय की मूर्तिकला और शिल्पकला का शानदार उदहारण हैं। दर्शन करने के पश्चात् मैं और त्रिपाठी जी किले से नीचे उतर आये। दोपहर के तीन बजने वाले थे और अब हमें भूख भी लग आई थी।  कालिंजर के मुख्य चौराहे पर आकर हमने दो दो कालिंजरी समोसे खाये जो बेहद स्वादिष्ट थे। बांदा और कालिंजर के बीच उत्तर प्रदेश की रोडवेज बस निरंतर अपनी सेवा देती रहती है। समोसे खाने के बाद हम कालिंजर से विदा हो गए और बाँदा की तरफ निकल पड़े। समय अभाव के कारण हम विंद्यवासिनी देवी के दर्शन करने नहीं जा पाए और दूर से ही माँ को प्रणाम कर अगलीबार फिर से आने का वादा करके आगे बढ़ चले। 

    बाँदा पहुँचकर त्रिपाठी जी और मैं वहाँ पहुँचे जहाँ मेरा बैग रखा हुआ था, यह एक ऑफिस थी जहाँ कभी त्रिपाठी जी ने जॉब की थी यहीं उनका पसंदीदा एक चायवाला मित्र था गोपाल जिसकी चाय त्रिपाठी जी को काफी पसंद थी और उन्होंने मुझे भी गोपाल की चाय पिलवाई। वाकई चाय में बुंदेलखंड की ताजगी का एहसास था और बहुत ही जायकेदार थी। यहाँ से मुझे त्रिपाठी जी रेलवे स्टेशन छोड़ दिया और त्रिपाठी जी फिर से अपने गंतव्य को रवाना हो गए। त्रिपाठी जी से दूर होने के बाद ना जाने क्यों मेरी आँखों में आँसू से आगये और दिल ने फिर से किसी अपने के दूर होने का एहसास किया। फेसबुक से शुरू हुआ  मेरा और त्रिपाठी जी का रिश्ता अब दिल में अपनी जगह बना चुका था और अब त्रिपाठी जी मेरे लिए गैर नहीं मेरे अपने बन चुके थे, मेरे बड़े भाई बन चुके थे। शाम को संपर्क क्रांति आई और मैं सुबह चार बजे अपने घर मथुरा पहुँच चुका था। कालिंजर और त्रिपाठी जी की बहुत यादें अपने साथ लेकर।
     
कालिंजरी पहाड़ी 

त्रिपाठी जो फोन पर बात करते हुए 

किले के अंदर 

स्नानागार, कालिंजर 

पुराने महल और मंदिर के अवशेष 

पुराना स्नानागार, कालिंजर  


शिव मंदिर, कालिंजर किला 









  • मुख्य दरवाजा  













  • चौबे महल 















  • वेंकट बिहारी मंदिर 


VENKAT BIHARI TEMPLE


VENKAT BIHARI TEMPLE

RANI MAHAL

KALINGER FORT

ON ROOF OF VENKAT BIHARI TEMPLE

ON ROOF OF VENKAT BIHARI TEMPLE



IN
 VENKAT BIHARI TEMPLE


 VENKAT BIHARI TEMPLE


  •  रानी महल 







RANI MAHAL







  • एक पुरानी मस्जिद और शनिचरा तालाब 


A MOSQUE

SHANI TALAB












  • जकीरा महल 







  • राजा अमान सिंह का महल 






















  • नीलकंठ महादेव 





































  • पुराना महल 

















  • किले के बाहर का दृश्य 





















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  • आगरा किला 
  • फतेहपुर सीकरी 
  • पिनाहट का किला
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  • बटेश्वर किले के अवशेष  
  • मथुरा किला या कंस किला 
  • हाथरस किला 
  • लाखनू किले के अवशेष और सूरजपुर किला 
  • झाँसी किला 

6 comments:

  1. भाई आप बुंदेलखंड के बहुत से ऐसे हिस्से घुमा रहे हो जो कभी सुने भी नही...साधुवाद आपको...

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  2. सुधीर भाई सम्मान देने के लिए साधुवाद ईश्वर हमेशा अपनी कृपा आपके ऊपर बनाए रखे

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  3. We are going to this place with students in February...is it possible for the private bus to reach at the nearest point of the fort like your bike???

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  4. अगर बाइक से जाए तो ठीक रहेगा

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  5. Bhai mujhe bhi kalinjar ka kila ghumne ki badi ichcha hai dekho kab samay milta hai ek bar jarur jaane ka prayas karunga

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