पढ़ावली - दशवीं शताब्दी का एक खंडित शिव मंदिर
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मितावली से ही कुछ दूर ऊँची ऊँची पहाड़ियाँ सी दिखने लगी थीं। किसी ने हमें बताया कि उन पहाड़ियों के उसपार ग्वालियर की सीमा शुरू हो जाती है और मुरैना की समाप्त। ये सुनते ही विमल मुझपर झर्राया - तू हमें आखिर धीरे धीरे करके ग्वालियर तक ले ही आया, अब बहुत हो चुका अब सीधे घर का रास्ता पकड़ते हैं। मैं जानता था अभी यहाँ बहुत ऐसा है जिसे ढूँढना और देखना बाकी था और मैं किसी भी हालत में इस खोज को अधूरा छोड़कर जाने वाला नहीं था परन्तु अपने दोस्त को विश्वास दिलाना और उसकी चिंता समाप्त करना भी मेरा ही कर्तव्य था, इसलिए मैंने उसे गूगल में हाईवे तक पहुँचने का रास्ता दिखाया जो ठीक उन पहाड़ियों के बराबर से हाईवे तक जा रहा था। घर की तरफ जाने वाले रास्ते को देखकर विमल संतुष्ट हो गया और उसे यकीन हो गया कि हम घर की तरफ ही बढ़ रहे हैं बस रास्ते में जो भी ऐसी जगह मिलेगी उसे देखते हुए जायेंगे।
कुछ ही समय में हम उन पहाड़ियों के करीब पहुँचे जहाँ बटेश्वर मंदिर समूह की ओर जाने वाले रास्ते पर हमें एक गांव मिला जिसका नाम था 'पढ़ावली' और यहीं हमें देखने को मिला एक किले की तरह दिखने वाला ऐतिहासिक कालीन स्थान जिसे गढ़ी पढ़ावली के नाम से जाना जाता है। यहाँ पुरातत्व विभाग ने काफी अच्छी देख रेख की हुई है। किले की तरह दिखने वाली इस गढ़ी का गेट किसी राजमहल के गेट से कम नहीं लगता। मुख्य द्धार के दोनों तरफ बड़ी बड़ी घोड़ों की प्रतिमाएं और इसकी मजबूत दीवारें दर्शाती हैं कि यह वाकई अपने समय में कितना विशाल रहा होगा। यहाँ आने से पहले मुझे इस स्थान की कोई भी जानकारी नहीं थी और नाही इस स्थान के इतिहास के बारे में मुझे कोई यहाँ ठीक से बता पाया। परन्तु पुरातत्व विभाग द्वारा पत्थर का बोर्ड जरूर बाहर लगा हुआ था जिसे मैंने गौर से पढ़ा और जाना कि यह भी 10 वीं शताब्दी का पुराना शिव मंदिर है जिसे गोहद के जाट राजाओं ने एक किलेनुमा गढ़ी के रूप में परिवर्तित कर दिया है।
पत्थर के बोर्ड से मिली जानकारी के आधार पर मुझे इसे देखने की उत्सुकुता और बढ़ गई परन्तु इस बीच मेरे दोनों दोस्तों की रूचि यहाँ आकर समाप्त हो गई वे दोनों इस गढ़ी के बाहर नीम के पेड़ छाया में आराम करने लगे। मैं अकेला ही गढ़ी के अंदर गया और इसके मुख्य मंडप के नीचे पहुँचा जिसकी दीवारों पर बनी हुई पत्थरोँ की मूर्तियां और छत के अंदर की गई चित्रकारी अतुलनीय है। मंडप के ठीक सामने टूटे फूटे पत्थरों से बनी हुई खंडित मूर्तियों का अंबार लगा हुआ था और ठीक चारों तरफ की दीवारों पर हिन्दू देवी देवताओं की खंडित मूर्तियां आसन पर आसीन थीं। मुझे जिसकी तलाश थी वो अभी तक मुझे कहीं भी दिखाई नहीं दिया और वो था वो शिव मंदिर जिसे सुरक्षित करने के लिए इस गढ़ी का निर्माण हुआ था।
मैं इस गढ़ी के गुप्त मार्गों को खोजता हुआ आखिरकार शिवमंदिर के उस शिवलिंग तक पहुँच ही गया जो बड़ी ही क्रूरता के साथ खंडित किया गया था और जिसे विदेशी आक्रांताओं के जुल्म से बचाने के लिए एक कोने में छुपा दिया गया था किन्तु इन विदेशी आक्रांताओं के सैनिकों की दृष्टि से ये यहाँ भी नहीं बच सका और इसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। इसके ठीक बराबर में अपने मूलरूप में एक शिवलिंग और मैंने देखा जो खंडित तो नहीं था परन्तु अपने मूल स्थान पर भी नहीं था और एक कोने में ही पड़ा हुआ था जिसे देखकर लगता है मानो इसका निर्माण भी उसी समय हुआ होगा जब इस गढ़ी का निर्माण हुआ था। हिन्दुओं के आराध्य भगवान शिव जिनका किसी समय में इस स्थान पर भव्य दुग्धाभिषेक और पूजा अर्चना होती होगी आज ऐतिहासिक कालीन मंदिर में ऐसी दुर्दशा देखकर मेरा मन विचलित हो उठा और इस स्थान के इतिहास की कल्पना करते हुए दोस्तों के पास बाहर आ गया।
गढ़ी पढ़ावली |
गढ़ी पढ़ावली में सुधीर उपाध्याय |
गढ़ी पढ़ावली |
गढ़ी पढ़ावली का वर्णन |
मेरा मित्र - लोकेश ( मैं नहीं जाऊँगा अंदर, तुम ही देख आओ ) |
गढ़ी पढ़ावली |
गढ़ी पढ़ावली प्रवेश द्धार |
प्रवेश द्धार के पास एक प्रतिमा |
मंडप |
मंडप और शानदार कारीगरी |
गुप्त मार्ग |
मंडप |
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ये नया शिवलिंग है शायद |
और ये शायद पुराना शिवलिंग है जो मूल शिवलिंग रहा होगा, साथ ही नंदी की खंडित मूर्ति |
पढ़ावली |
पढ़ावली किला |
बटेश्वर की तरफ जाने वाला रास्ता |
हिन्दू देवी देवताओं की आसीन प्रतिमाएँ |
नीम के पेड़ की छाया में मेरा इंतजार करते विमल और लोकेश, ये हरी बोतल वाला कोई अन्य है |
पढ़ावली किला |
विमल की घर जाने की ख़ुशी और जल्दी धन्यवाद
अगली यात्रा : - बटेश्वर -प्राचीन मंदिर समूह
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