पाचोरा जंक्शन पर एक रात
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अब वक़्त हो चला था अपनी नई मंजिल की तरफ बढ़ने का, मतलब अब मुझे पाचोरा की तरफ प्रस्थान करना था। इसलिए मैं मुर्तिजापुर के बाजार से घूमकर स्टेशन वापस लौटा तो मैंने उन्हीं साईं रूप धारी बाबा को देखा जो कुछ देर पहले मेरे साथ अचलपुर वाली ट्रेन से आये थे। वो बाबा बाजार में जाकर मदिरा का सेवन करके स्टेशन लौटे और एक खम्भे से टकराकर गिर पड़े। स्थानीय लोगों ने उनकी मदद करने की कोशिश बाबा ने वहीँ लेटे रहकर आराम करना उचित समझा। हालाँकि खम्भे से टकराकर बाबा का काफी खून भी निकला था अंगूर की बेटी सारे गम भुला देती है।
टिकट लेकर मैं प्लेटफॉर्म पर आया तो अमरावती से पुणे जाने वाली एक ट्रेन आई जिसके जनरल के कोच बिल्कुल खाली पड़ी थीं। अकोला तक जाने के लिए इससे बेहतर कोई ट्रेन नहीं लगी जबकि इसके पीछे अभी विदर्भ एक्सप्रेस भी आने वाली थी। मैं इसी ट्रेन से अकोला पहुँचा, यह ट्रैन अब यहाँ से वापस दूसरी दिशा में पूर्णा की तरफ जायेगी जिस पर कभी मीटरगेज की मिनाक्षी एक्सप्रेस पूर्ण होते हुए हैदराबाद तक जाती थी। ट्रैन की खाली सीटों को देखकर और आँखों में सारे दिन के सफर की थकावट की वजह से आती नींद को देखकर ट्रैन से उतरने का मन तो नहीं था परन्तु दुःख इसी बात का था कि मंजिल कहीं और है और ये ट्रैन उस मंजिल की तरफ नहीं जाती।
मुझे भूख लगी थी इसलिए मैं स्टेशन पर बने रिफ्रेशमेंट रूम में 50 रूपये में एक थाली ली। मैं इस थाली का जब फोटो खींच रहा था तो कैंटीन के मैनेजर के बड़े आदर से मुझसे पुछा - सर, खाना अच्छा तो है ना, कोई कमी तो नहीं है। मैंने कहा हाँ ठीक है क्यों ? उसने कहा - नहीं सर, वो आप खाने का फोटो ले रहे थे ना इसलिए मैंने कहीं आप IRCTC में शिकायत ना कर दें बस। मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा - नहीं भाई, ऐसी कोई बात नहीं है मैं कहीं बाहर यात्रा में खाना खाता हूँ तो उसकी एक फोटो ले हूँ यादगार के तौर पर। आपकी कैंटीन का खाना वाकई बहुत अच्छा और स्वादिष्ट है। मेरी बात से प्रशन्न होकर उसने मुझे दो रोटी एक्स्ट्रा लाकर दी वो भी बिना अतिरिक्त मूल्य के।
रात के दस बज चुके थे, प्लेटफॉर्म पर भीड़ बढ़ती जा रही थी और सवारियाँ बेशब्री से उसी ट्रैन की प्रतीक्षा कर रही जिससे आज ही सुबह मैं अमरावती गया था। मतलब अमरावती एक्सप्रेस जो मुंबई जाने के लिए समय में आने वाली है। जब ट्रैन आ गई तो मुझे इसके जनरल कोच में चढ़ने की भी जगह नहीं मिली जबकि मुझे इसी ट्रैन से जलगॉव तक जाना है। भगवान का शुक्र था कि इसका ब्रेकयान खाली जा रहा था, इसी ब्रेक यान सवार हो लिया और दरवाजे के नजदीक ही बैग सिरहाने लगाकर लेट गया। मेरे अलावा और भी यात्री इस ब्रेक यान में थे। जल्द ही मैं जलगांव पहुँच गया। यह ट्रेन पाचोरा नहीं रूकती है इसलिए ही मुझे यहाँ उतरना पड़ा।
जलगांव के प्लेटफॉर्म पर रात के 12 बजे खुले आसमान के नीचे सोने में मुझे बड़ा ही सुकून मिला। मेरे घर मथुरा में अभी ठण्ड का समय है इसलिए वहाँ खुले आसमान के नीचे सोना असंभव था, खुले आसमान के नीचे सोने की ये ख़ुशी मुझे यहाँ आकर ही मिली परन्तु वहाँ की तरह यहाँ भी मच्छरों ने मुझे वो सुकून प्राप्त नहीं होने दिया। पंजाब मेल आ चुकी है, यह आज सुबह मथुरा से आई है और अब रात को यहाँ पहुंची है। अपने यहाँ की ट्रेनों को दुसरे स्थानों पर देखकर ना जाने क्यों दिल में एक अलग ही ख़ुशी सी होती है। ऐसा लगता है जैसे इन ट्रेनों से हमारा कोई खाश नाता सा है सिर्फ इसलिए क्यूँकि यह हमारे यहाँ से होकर गुजरती हैं और हम घर से हजारों किमी दूर होकर भी स्वयं को नजदीक ही पाते है।
भुसावल से पुणे जाने वाली एक एक्सप्रेस ट्रेन आई। इसका अगला स्टॉप पाचोरा ही है मैं इसी से पाचोरा तक आया और एक बेंच पर बैग को सिरहाने लगाकर सो गया। क्योंकि सुबह होने में अभी काफी वक़्त था मुझे आराम की बहुत आवश्यकता थी। पर सच पूछो तो मैं रात भर सो ही नहीं पाया क्योंकि एक तो यहाँ अधिकतर ट्रेनों स्टॉप नहीं है इसलिए जब भी कोई सुपरफास्ट ट्रैन यहाँ से गुजरती थी तो उसकी सीटी मेरे कानों में घंटों तक गूंजती रहती थी और दूसरा यहाँ भी मुझे जलगांव की तरह मच्छरों से भर युद्ध लड़ना पड़ा।
अकोला स्टेशन पर भोजन |
जलगाँव रेलवे स्टेशन |
जलगाँव स्टेशन पर सुधीर उपाध्याय |
यात्रा का आखिरी पड़ाव - पाचोरा जंक्शन |
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