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विजय नगर साम्राज्य के अवशेष - हम्पी
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तेरहवीं शताब्दी में भारत वर्ष की अधिकांश भूमि पर इस्लाम के वाशिंदों का राज्य स्थापित हो चुका था, साम्राज्य अब सल्तनतों में तब्दील होने लगे थे। भारतीय हिन्दू सम्राटों की जगह अब देश की बागडोर तुर्की मुसलमानों के हाथों में आ चुकी थी जो स्वयं को सम्राट की बजाय सुल्तान कहलवाना पसंद करते थे।
भारत का मुख्य केंद्रबिंदु दिल्ली, अब इन्हीं तुर्कों के अधीन थी और ये तुर्क समस्त भारत भूमि को अपने अधीन करने का सपना देखने लगे थे। भारत देश अब नए नाम से जाना जाने लगा था जिसे तुर्की लोग हिंदुस्तान कहकर सम्बोधित करते थे। हर तरफ इस्लामीकरण का जोर चारों ओर था, हिन्दुओं को जबरन तलवार के बल पर इस्लाम कबूल कराया जाने लगा था। हिन्दुओं पर अत्याचार, अब आम बात हो चली थी।
भारतीय हिन्दू अब वैदिक धर्म को खोने लगे थे, सल्तनत की सीमायें बढ़ती जा रही थीं और अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में दिल्ली सल्तनत की सीमायें, दक्षिण भारत को छूने लगी थीं, जहाँ अभी तक हिन्दू अपने धर्म और संस्कृति को बचाये हुए थे। इस्लाम के प्रसार को रोकने और वैदिक धर्म को क्षीणता से बचाने के लिए आखिरकार दक्षिण भारत में एक नए महान साम्राज्य की स्थापना हुई जिसे विजय नगर साम्राज्य के नाम से जाना गया।
विजय नगर साम्राज्य, पौराणिक काल की किष्किंधा नगरी के अवशेषों पर बसाया गया था, जहाँ रामायण के अनुसार बालि और सुग्रीव नामक शक्तिशाली वानरों का राज स्थापित था। श्री राम जब अपनी पत्नी सीता को खोजते हुए इस स्थान पर पहुंचें तो यहीं उनकी प्रथम भेंट महावीर हनुमान से हुई और यहीं श्री राम ने वानर राज बालि का वध करने के पश्चात सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाया और अपना मित्र भी। इस मित्रता के बल पर श्री राम ने, लंका नरेश रावण से युद्ध करने हेतु वानर सेना एकत्र की और अंततः रावण का वध करके पृथ्वी को दैत्यों से रहित किया।
किष्किंधा या विजय नगर साम्राज्य, तुंगभद्रा नदी के किनारे गोल और मोतीचूर जैसे दिखने वाले पत्थरों से निर्मित पहाड़ों के मध्य स्थित है। यहाँ का वातावरण, अत्यंत ही सुरम्य है। प्रकृति के अनोखे रूप यहाँ देखे जा सकते हैं। आधुनिक भारत वर्ष के कर्नाटक राज्य में स्थित यह स्थान, आज भी अपनी पौराणिक और ऐतिहासिक महागाथाओं का वर्णन करता है। यहाँ की स्थानीय देवी पम्पा के नाम पर आज यह स्थान हम्पी कहलाता है। पौराणिक काल का पम्पा सरोवर भी यहीं स्थित है जो पंच सरोवरों में से एक है।
विजयनगर साम्राज्य के राजवंश और प्रमुख शासकों का इतिहास
विजय नगर के महान साम्राज्य पर चार राजवंशों ने 300 से भी अधिक समय तक शासन किया। भारत में बढ़ते इस्लामीकरण के मध्येनजर, दक्षिण भारत के प्रसिद्ध संत विद्यारण्य की अनुमति और आशीर्वाद से हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने तुंगभद्रा नदी के दक्षिणी तट पर महान हिन्दू साम्राज्य विजय नगर की नींव रखी और अनेगोण्डी नामक ग्राम को इस राज्य की राजधानी चुना गया जो पौराणिक काल की किष्किंधा नगरी कहलाती है। हरिहर और बुक्का के पिता का नाम संगम था, अतः इस वंश को संगम वंश के नाम से जाना गया। विजय नगर साम्राज्य पर राज करने वाले प्रमुख राजवंशों का विवरण निम्नलिखित है -
संगम वंश ( 1336 - 1485 ई. )
वारंगल के काकतीय राजवंश के शासक प्रताप रुद्रदेव के यहाँ राजस्व अधिकारी के पद पर कार्य करने वाले हरिहर और बुक्का नामक दो भाई, वारंगल पर हुए दिल्ली सल्तनत के इस्लामिक आक्रमण के बाद, कर्नाटक के काम्पिली प्रदेश में आकर बस गए, इसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक ने इन्हें यहाँ से बुलाकर दिल्ली सल्तनत की सेवा में नियुक्त किया और इन्हें हिन्दू से मुसलमान बना दिया। इधर, दक्षिण भारत में होयसल राज्य के पतन के पश्चात् बढ़ते इस्लामीकरण को देखते हुए, प्रसिद्ध तेजस्वी संत विद्यारण्य ने इन्हें दक्षिण वापस बुलाया और पुनः इनकी वापसी हिन्दू धर्म में करवाकर महान हिन्दू साम्राज्य का निर्माण करने की अनुमति दी, जिसके बाद दक्षिण भारत की भूमि पर विजय नगर साम्राज्य की नींव रखी गई।
राजा हरिहर ( 1336 - 1356 ई. )
विजय नगर साम्राज्य के गठन के पश्चात भगवान विरुपाक्ष ( शिव ) के समक्ष हरिहर का राज्याभिषेक हुआ और हरिहर ने विजय नगर प्रान्त की समस्त भूमि का स्वामी भगवान विरुपाक्ष को मानकर उनका अभिकर्ता बनकर राज्य किया। आधुनिक हम्पी में स्थित भगवान विरुपाक्ष का मंदिर हरिहर द्वारा निर्मित विजय नगर साम्राज्य का सबसे प्रमुख और प्रथम मंदिर है। आज भी यहाँ भगवान् विरुपाक्ष ( शिव )की पूजा और उनका अभिषेक तुंगभद्रा के जल से किया जाता है। मंदिर के ऊँचे ऊँचे गोपुरम काफी दूर से ही दिखलाई पड़ते हैं। यह मंदिर हम्पी ग्राम के नजदीक तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित है।
राजा बुक्का ( 1356 - 1377 ई. )
दक्षिण भारत में विजय नगर जैसे हिन्दू साम्राज्य की स्थापना के बाद, दिल्ली सल्तनत के प्रमुख सामंतों ने भी विद्रोह शुरू कर दिए। 1346 ई. में हसन गंगू नामक एक सामंत ने भी विद्रोह करके स्वयं को देवगिरि का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और बहमनी सल्तनत की नीवं रखी। आगे चलकर बहमनी सल्तनत, विजय नगर साम्राज्य की प्रतिद्वंदी सिद्ध हुई। राजा हरिहर की कोई संतान नहीं थी अतः उन्होंने अपने भाई बुक्का को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो 1356 ई. में हरिहर की मृत्यु के बाद विजय नगर की गद्दी पर बैठा। बुक्का के शासनकाल में बहमनी सुल्तान मुहम्मद शाह ने विजय नगर पर आक्रमण किया।
तत्कालीन लेखक फरिश्ता के अनुसार, यह पहली बार ही था जब कोई बहमनी सुल्तान युद्ध हेतु तुंगभद्रा पार करके विजय नगर में दाखिल हुआ हो। इस युद्ध में एक लाख से भी अधिक हिन्दू मारे गए फिर भी अंत में युद्ध का कोई निर्णय नहीं निकला और दोनों पक्षों को संधि करने के लिए विवश होना पड़ा। इस संधि के तहत, युद्ध के बाद आम नागरिकों की हत्या न करने का सविंधान बना, कृष्णा नदी को विजय नगर और बहमनी सल्तनत की सीमा रेखा मान लिया गया। इसी युद्ध में सर्वप्रथम तोपों का प्रयोग किया गया था।
बुक्का के पुत्र कम्पन्न ने 1370 ई. में मदुरै के सुल्तान को पराजित करके मदुरै और रामेश्वरम तक के क्षेत्र को विजय नगर साम्राज्य में सम्मिलित किया। इस प्रकार 1335 ई. में एहसान खां द्वारा स्थापित मदुरै के मुस्लिम साम्राज्य का अंत हुआ। हिन्दू साम्राज्य विजय नगर की यह किसी गैर धर्म पर पहली विजय थी।
वीर हरिहर द्वितीय ( 1377 - 1404 ई. )
वीर हरिहर महाराधिराज और राजपरमेश्वर की उपाधि धारण करने वाला विजय नगर का प्रथम सम्राट था। प्रारम्भ में वीर हरिहर के पिता बुक्का ने उसे होयसल राज्य का शासक नियुक्त किया और बाद में उसे विजय नगर साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। वीर हरिहर ने अपने पिता की ही भांति इस्लामी शासकों को पराजय का मुँह दिखलाया जिसका प्रथम उदाहरण वीर हरिहर और बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन मुजाहिदशाह के साथ हुआ संघर्ष था जिसमें वीर हरिहर ने अपार वीरता का प्रदर्शन करते हुए बहमनी सल्तनत के प्रसिद्ध बंदरगाह गोवा और उत्तरी कोंकण राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और विजय नगर साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार किया।
वीर हरिहर द्वितीय के महलों के अवशेष आज भी हम्पी में देखे जा सकते हैं। यह अवशेष यहाँ कराये गए उत्खनन से प्राप्त हुए हैं जिनमें शाही निवास और राजदरबार मुख्य हैं। यहाँ मिले शिलालेख के अनुसार इतिहासकारों ने इसकी वीर हरिहर के महल होने की पुष्टि की है।
देवराय प्रथम ( 1406 - 1422 ई. )
1404 ई. में वीर हरिहर की मृत्यु के पश्चात विजय नगर में उत्तराधिकार का युद्ध शुरू हुआ जिसके तहत वीर हरिहर का बड़ा पुत्र विरुपाक्ष और बुक्का II ने क्रमश एक एक वर्ष शासन किया और अंत में 1406 ई. में वीर हरिहर के सबसे छोटे पुत्र देवराय प्रथम ने विजय नगर पर अपना अधिकार कर लिया। देवराय प्रथम के समय में ही बहमनी सुल्तान फ़िरोज़शाह ने वेलमों और रेड्डियों की सहायता लेकर विजय नगर पर आक्रमण कर दिया। इतिहास में इसे सोनार की बेटी का युद्ध के नाम से जाना गया क्योंकि देवराय प्रथम को फ़िरोज़शाह बहमनी के साथ समझौता करना पड़ा और इस समझौते के तहत देवराय प्रथम ने अपनी पुत्री का विवाह फ़िरोज़शाह बहमनी के साथ कर दिया।
कहा जाता है इस विवाह के दौरान देवराय प्रथम ने फ़िरोज़शाह बहमनी का बहुत ही शानोशौकत के साथ जश्न तैयार किया था। जब फ़िरोज़शाह विजयनगर पहुंचा तब उसके स्वागत में विजय नगर के द्वार से महल तक जिसकी दूरी लगभग 10 किमी थी, के रास्तों में जरी, साटन और मखमल जैसे अन्य कीमती वस्त्रों के कालीन बिछाए गए और देवराय स्वयं उसके स्वागत के लिए विजय नगर के द्वार पर पहुंचा और दोनों राजा घोड़ों पर सवार होकर विजय नगर के आलिशान महलों में पहुंचे। यह जश्न तीन दिनों तक चलता रहा।
देवराय प्रथम ने ही तुंगभद्रा नदी पर बाँध का निर्माण कराया था ताकि नगर के अन्य प्रांतों में जल की पूर्ण आपूर्ति हो सके इसके लिए नहरों का निर्माण भी किया गया।
देवराय द्वितीय ( 1425 - 1446 ई. )
देवराय प्रथम के बाद विजय नगर की बागडोर वीर विजय के हाथों में आ गई, जिसने कुछ वर्ष राज्य करने के बाद साम्राज्य की बागडोर अपने पुत्र देवराय द्वितीय को सौंप दी जो आगे चलकर संगम वंश का सबसे महान सम्राट सिद्ध हुआ। देवराय द्वितीय का बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन अहमद शाह से दो बार संघर्ष हुआ और इस संघर्ष में देवराय ने बहमनी सुल्तान को हराकर रायचूर दोआब में स्थित मुद्गल किला छीन लिया, जिसे हथियाने के लिए पूर्व में भी विजय नगर और बहमनी शासकों में आपस में युद्ध होते रहे थे। देवराय द्वितीय ने बहमनी सल्तनत पर विजय पाने हेतु एक जाँच कमेठी का गठन किया और बहमनी सल्तनत की शक्तियों से रूबरू हुआ।
उसने अपनी सेना में 2000 तुर्क धनुर्धारियों की नियुक्ति की और इतना ही नहीं, उसने दिल्ली सल्तनत की सेनाओं की विशेषताओं को अपने सैन्य ढाँचें में सम्मिलित किया। देवराय द्वितीय ने सिंहासन के सम्मुख कुरान की प्रतिलिपि रखवाई और मुसलमानों को विजय नगर राज्य में मस्जिदों के निर्माण की स्वतंत्रता दी। देवराय द्वितीय ने ही विजय नगर साम्राज्य ने विट्टल मंदिर की सर्वप्रथम नींव रखी।
देवराय द्वितीय के समय में ही फारस का यात्री अब्दुलरज्जाक, कालीकट के बंदरगाह से होते हुए विजय नगर में आया जिसने यहाँ का बहुत ही शानदार और सुन्दर वर्णन किया है। उसका मानना है कि विजय नगर का राजा, भारत के सभी शासकों में सबसे अधिक शक्तिशाली है और विजय नगर राज्य सबसे सुन्दर राज्य है।
देवराय द्वितीय के पश्चात विजयराय और मल्लिकार्जुन ने विजय नगर पर अपना राज्य स्थापित किया किन्तु अपने पूर्वजों की भाँति यह इतने बड़े साम्राज्य को सँभालने में असमर्थ रहे। विरुपाक्ष द्वितीय संगम वंश का अंतिम शासक था। विरुपाक्ष द्वितीय की मृत्यु के बाद विजय नगर साम्राज्य में सत्ता परिवर्तन हो गया और अब विजय नगर का नया उत्तराधिकारी चंद्रगिरि का सूबेदार सालुव नरसिंह हुआ जिसने विजय नगर में एक नए वंश की नींव रखी और यह वंश सालुव वंश के नाम जाना गया।
सालुव वंश ( 1480 - 1490 ई. )
सालुव नरसिंह ही सालुव वंश का संस्थापक था और इस वंश का सबसे योग्य एवं शक्तिशाली सम्राट था। यह नरसा नायक के माध्यम से विजय नगर का सम्राट बना था। उसने घोड़े के व्यापार पर विशेष जोर दिया क्योंकि उसका मानना था कि एक शक्तिशाली राज्य को मजबूत बनाये रखने के लिए सेना में शक्तिशाली घोड़ों का होना अति आवश्यक होता है। सालुव नरसिंह की मृत्यु के बाद इस वंश के अन्य शासक अयोग्य सिद्ध हुए और नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने अंतिम सालुव शासक इमादि नरसिंह की हत्या करके इस वंश में परिवर्तन कर दिया और तुलुव नामक नए वंश की स्थापना की।
तुलुव वंश ( 1505 - 1570 ई. )
वीर नरसिंह के पितामह का नाम तुलुव था और उन्हीं के नाम पर इसने इस वंश का नाम तुलुव वंश रखा, उसने 4 वर्ष तक विजय नगर पर राज किया उसके पश्चात राज्य की बागडोर कृष्ण देवराय के हाथों में आ गई जो इस वंश के ही नहीं बल्कि विजय नगर साम्राज्य के सबसे महान और शक्तिशाली शासक बनकर उभरे।
राजा कृष्ण देवराय ( 1509 - 1529 ई. )
राजा कृष्ण देवराय के पिता का नाम नरसा नायक था और माँ का नाम नागला था, जिनकी याद में राजा ने नागलापुर नामक शहर बसाया। कृष्ण देवराय का राज्यभिषेक कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ था, विजय नगर की प्रजा कृष्ण देवराय को भगवान कृष्ण का ही अवतार समझने लगी थी। राजा कृष्णदेवराय ने विजय नगर में अनेकों मंदिरों और महलों का निर्माण करवाया था। विजयनगर के विट्टल मंदिर का पूर्ण निर्माण राजा कृष्णदेवराय के काल में ही संपन्न हुआ, जो आज आधुनिक हम्पी का प्रमुख पर्यटन स्थल है, यहाँ स्थित पत्थर का रथ अति दर्शनीय है।
उड़ीसा में कृष्णदेवराय का समकालीन शासक गजपति नरेश प्रताप रूद्र था जिसे कृष्णदेवराय ने अनेकों बार हराया था और अंत में उसकी राजधानी कटक पर आक्रमण करके उसे अपने आगे झुकने को विवश कर दिया। प्रतापरुद्र ने अनेक उपहार और भेंटों के साथ अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेवराय के साथ कर दिया।
इस विजय के फलस्वरूप कृष्ण देवराय ने विजय नगर में एक ऊँचे सिंहासन मंच की स्थापना की जिसे विजय भवन भी कहा जाता है। कृष्णदेवराय ने 1512 ई. में रायचूर दोआब पर अपना अधिकार कर लिया, गुलबर्गा, बीदर, गोलकुंडा और बीजापुर के सुल्तानों को उनकी राजधानी में घुस कर अपने आगे घुटने टेकने को मजबूर कर दिया।
राजा कृष्णदेवराय ने सम्पूर्ण विजय नगर को विवाहकर से मुक्त कर दिया था। माँ की याद में नागलापुर बसाने के बाद उन्होंने पत्नी की याद में होस्पेट नामक शहर बसाया और विजय नगर में हजार राम मंदिर, कृष्ण मंदिर आदि का निर्माण करवाया। कृष्ण देवराय का राजदरबार भुवन विजय के नाम से विख्यात था।
कृष्ण देवराय के दरबार में तेलगु के आठ महाकवि रहा करते थे, ये सभी अष्ट दिग्गज ने नाम से जाने गए। राजा कृष्णदेवराय स्वयं भी उछ्कोति के विद्वान थे, उन्होंने संस्कृत भाषा में जामवती कल्याणम नामक नाटक की रचना की और इसके साथ ही उषा और अनिरुद्ध की प्रेमकहानी पर 'ऊषा परिणय' की रचना की।
कृष्णदेवराय ने 1524 ई. अपने 6 वर्षीय पुत्र तिरुमल को राज्य का शासक बनाकर स्वयं प्रधानमंत्री बनकर कार्य किन्तु किन्तु तिरुमल की असमय मृत्यु के कारण राज्य की बागडोर अपने सौतेले भाई अच्युत देवराय को सौंप दी।
अच्युत देवराय के बाद सदाशिव राय इस वंश का आखिरी शासक था जिसके शासनकाल में राज्य की असली बागडोर राजा कृष्णदेवराय के दामाद रामराय के हाथों में थी। इस वंश के पतन के साथ साथ विजय नगर साम्राज्य का भी पतन हो गया।
तालीकोट का युद्ध ( 23 जनवरी 1565 ई. )
कृष्णा नदी के तट पर राक्षसी और तांगड़ी ग्रामों की भूमि पर यह युद्ध लड़ा गया जिस कारण भारतीय इतिहास में इसे राक्षसी तांगड़ी का युद्ध भी कहते हैं। इस युद्ध के दौरान अकेले हिन्दू राज्य विजय नगर पर, गोलकुंडा के कुतुबशाही, बीदर के बरीदशाही, अहमदनगर के निजामशाही और बीजापुर के आदिलशाही शासकों ने एकसाथ मिलकर आक्रमण किया था। बरार, इस मुस्लिम संघ में शामिल नहीं हुआ था। इस संघ का मुख्य उद्देश्य इस युद्ध के जरिये हिन्दू राज्य विजय नगर का पूर्ण रूप से दमन करना था। विजयनगर राज्य की ओर से लड़ने वाला शासक रामराय इस युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ और मारा गया।
इसके बाद इस संयुक्त इस्लामी संघ ने विजय नगर पूर्ण रूप से रौंद डाला, महल, मंदिर और अन्य स्थान नष्ट कर दिए गए। गांवों के गाँव जला दिए गए, विजय नगर की प्रजा का भीषण नरसंहार किया। कहते हैं इस युद्ध के बाद तुंगभद्रा नदी के पानी का रंग लाल हो गया था। विजय नगर को बुरी तरह से कुचलने के बाद ही शाही सेनाएं अपने प्रांतों को रवाना हो गईं क्योंकि विजय नगर में अब कुछ भी रहने योग्य नहीं रह गया था, सभी महल और भवन खंडहरों में तब्दील कर दिए गए।
हर तरफ लाशों के अम्बार थे, चीख पुकारें थीं, आसमान में मंडराते गिद्ध और कौवे थे। विजय नगर जैसे सुन्दर राज्य का दर्दनाक अंत हो गया। राज्य की राजधानी हम्पी को बुरी तरह से लूटा गया, राज्य की सारी धन सम्पदा को लूट कर शाही सेनाएं अपने साथ ले गईं।
आरविदु वंश ( 1570 - 1652 ई. )
हालांकि तालीकोट का यह युद्ध, विजय नगर के लिए संकट काल था किन्तु अंतिम काल नहीं था। विजय नगर का अस्तित्व इस युद्ध के अगले 100 वर्षों तक रहा। विजयनगर की नई राजधानी पेनुगोंडे बनाई गई और विजय नगर में अब एक नए वंश का उदय हुआ। यह वंश आरविदु वंश था जिसकी स्थापना तिरुमल ने की। तिरुमल के बाद क्रमशः रंगा प्रथम और वेंकट द्वितीय शासक बने और उन्होंने राजधानी पेनुगोंडे से हटकर चंद्रगिरि पहुंचा दी। श्री रंग तृतीय इस वंश का और विजय नगर साम्राज्य का अंतिम सम्राट था।
विजय नगर अथवा हम्पी के दर्शनीय स्थल
विरुपाक्ष मंदिर
हम्पी का सबसे प्राचीन और मुख्य मंदिर विरुपाक्ष मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित इस मंदिर के ऊँचे ऊँचे गोपुरम बहुत दूर से ही दिख जाते हैं। हम्पी पहुंचकर सर्वप्रथम विरुपाक्ष मंदिर के ही दर्शन होते हैं। इस मंदिर निर्माण विजय नगर के प्रथम सम्राट हरिहर ने करवाया था, वक़्त के साथ साथ विजय नगर के अन्य शासकों ने भी इस मंदिर के जीर्णोद्धार में अपना योगदान दिया।
हम्पी बाजार और एकशिला नंदी
HAMPI MARKET |
HAMPI MARKET |
HAMPI MARKET & VIRUPAKSH TEMPLE VIEW |
MONOLITHIC NANDI |
तुंगभद्रा नदी
TUNGBHDRA RIVER NEAR CHKRTIRTH |
MY RENTED BYCYLE & CHAKRATIRTH |
TUNGBHDRA RIVER |
TUNGBHDRA RIVAR |
TUNGBHADRA RIVER |
TUNGBHADRA RIVER |
TUNGBHADRA RIVER |
ऋषिमुक पर्वत
VIEW OF RISHIMUKH HILL & TB RIVER |
RISHIMUKH HILL |
VIEW OF RISHIMUKH HILL |
RISHIMUKH HILL |
RISHIMUKH HILL |
RISHIMUKH HILL |
RISHIMUKH HILL |
RISHIMUKH HILL |
मातंग पर्वत
WAY TO MATANG HILL |
TOP OF MATANG HILL |
VIEW OF MATANG HILL |
MATANAG HILL |
कडलेकलु गणेश मंदिर
4. 50 मीटर ऊँची एक ही चट्टान के पत्थर से तराशी गई गणेश जी की विशाल प्रतिमा, इस मंदिर में दर्शनीय है। इसके चारों ओर एक पवित्र कक्ष का निर्माण हुआ है जिसके अग्रभाग में सुन्दर खम्भों वाला मंडप है। कन्नड़ भाषा में कडले कालू का अर्थ चने का दाना होता है। मंडप के खम्भों पर सुन्दर हिन्दू देव देवताओं और मनुष्यों के चित्र अंकित हैं।
KADALEKALU GANESHA |
KADALEKALU GANESHA TEMPLE |
KADALEKALU GANESHA TEMPLE |
SUGRIVA |
SHRI RAM |
PILLER OF KADALEKALU GANESHA TEMPLE |
हेमकूट पहाड़ी
HEMKOOT HILL |
VIEW OF VIRUPAKSH TEMPLE FROM HEMKOOT HILL |
VIEW OF RISHIMUKH HILL & HAMPI FROM HEMKOOOT |
कृष्ण मंदिर, कृष्णा बाजार और पुष्करिणी
KRISHNA MARKET |
KRISHNA TEMPLE |
KRISHNA TEMPLE |
नरसिंह तीर्थ और बड़वी लिंग
NARSINGH TIRTH |
NARSINGH TIRTH |
चण्डिकेश्वर मंदिर
CHANDIKESHWAR TEMPLE |
प्रसन्न विरुपाक्ष भूमिगत शिव मंदिर
वीर हरिहर के महल
A MOSQUE NEAR HARIHAR PLACE RUINS |
A MOSQUE |
MUSLIM QUARTER |
RUINS OF HARIHAR PLACE |
हजारा राम मंदिर
HAZAR RAM TEMPLE |
PAN SUPARI MARKET |
ELEPHANT STABLES - HAMPI |
ELEPHANT STABLES - HAMPI |
ELEPHANT STABLES - HAMPI |
ROYAL ENCLOUSER |
TALARIGATTA GATE |
STONE CHARIOT |
STONE CHARIOT |
STONE CHARIOT |
STONE CHARIOT |
FOREST LIZARD |
जंगली छिपकली यहाँ बहुत मिलती हैं इसलिए मंदिर की दीवार पर इनका चित्रण भी किया गया है। |
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