Monday, February 22, 2021

BIDAR

 UPADHYAY TRIPS PRESENT'S

कर्नाटक की ऐतिहासिक यात्रा पर भाग - 4, 01 JAN 2021

     बीदर - क्राउन ऑफ़ कर्नाटक 


 इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये। 

बीदर का सल्तनतकालीन इतिहास 

   दिल्ली सल्तनतकाल के दौरान तुगलक वंश के संस्थापक ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद, उसका पुत्र जूना खां, मुहम्मद बिन तुगलकशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। अपने शासनकाल के दौरान उसने साम्राज्यवादी नीति को अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। दिल्ली सल्तनत की सीमायें भारत के उत्तर और पश्चिम में अब कांधार और करजाल, पूर्व में बंगाल और दक्षिण भारत के राज्यों को छूने लगीं थीं। मुहम्मद बिन तुगलक निसंदेह एक दूर की सोच रखने वाला सुल्तान था, उसने अपने साम्राज्य का काफी हद तक विस्तार किया किन्तु उसने अपने शासनकाल के दौरान जो योजनाएँ लागू कीं, वह विफल रहीं। इन्हीं में से एक योजना थी राजधानी परिवर्तन की। उसने अपनी राजधानी दिल्ली से हटाकर देवगिरि स्थानांतरित की जो पूर्ण रूप से असफल रही और इस योजना के विफल हो जाने के बाद उसका राज्य छिन्न भिन्न हो गया। 

   हालांकि उसने देवगिरि को राजधानी के तौर पर इसलिए चुना ताकि देवगिरि से साम्राज्य की चारों दिशाओं में नियंत्रण स्थापित किया जा सके। उसका मुख्य उद्देश्य उत्तर भारत के साथ साथ दक्षिण भारत पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित रखना था किन्तु दिल्ली की जनता, देवगिरि जैसे सुदूर प्रदेश में नहीं ढल सकी और मजबूरन सुल्तान को फिर से राजधानी दिल्ली स्थानांतरित करनी पड़ी। देवगिरि से दिल्ली राजधानी परिवर्तन होने के बाद दक्षिण भारत के सामंतों ने विद्रोह कर दिया और स्वयं को तुगलक वंश का उत्तराधिकारी मानकर अपने नवीन वंशों की स्थापना की और स्वयं को सम्राट या सुल्तान घोषित किया। इन्हीं में से एक सामंत था हसन, जिसने दक्षिण भारत में बहमनी वंश की नींव रखी और देवगिरि के सिंहासन पर आसीन हुआ। 

   देवगिरि पर कुछ समय शासन करने के बाद उसने अपनी नई राजधानी गुलबर्गा को बनाया। 1422 ई. में अहमदशाह ने बहमनी सल्तनत की राजधानी गुलबर्गा से हटाकर बीदर में स्थानांतरित की और बीदर से ही राज्य का सञ्चालन आरम्भ किया। 1526 ई. में एक अमीर अलीबरीद ने आखिरी अयोग्य बहमनी सुल्तान को अपदस्थ कर स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और बीदर में फिर एक नए वंश बरीदशाही की स्थापना कर सुल्तान बन गया। बरीदशाही वंश के बाद बीदर पर मराठाओं का साम्राज्य स्थापित हो गया और बाद में चलकर यहाँ ब्रिटिश हुकूमत का राज रहा। देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ और बीदर की रियासत अब भारत का अभिन्न हिस्सा बन गई। बीदर महाराष्ट्र और तेलंगाना राज्यों का सीमावर्ती शहर है और कर्णाटक के सबसे शीर्ष पर स्थित होने के कारण यह कर्नाटक का मुकुट या ताज भी कहलाता है।  


बीदर में पर्यटन स्थल 

   यूँ तो बीदर पूर्ण रूप से एक ऐतिहासिक नगर है, बहमनी सल्तनतकाल की स्थापत्य कला के अनेकों उदाहरण यहाँ देखे जा सकते हैं, जिनमें महमूद गँवा का मदरसा, बीदर का शाही किला और अस्तूर स्थित बहमनी सल्तनत के सुल्तानों के मकबरे मुख्य हैं । इन सबके अलावा यहाँ श्री झरनी नर्सिंह जी का मंदिर है जो प्राकृतिक रूप से पहाड़ की तलहटी में स्थित है। पापनाश शिव मंदिर भी देखने योग्य है और इतना ही नहीं, बीदर शहर सिख धर्म के लिए भी बहुत महत्त्व रखता है क्योंकि यहाँ प्रथम सिख गुरु नानकदेव जी ने यहाँ की यात्रा की और अमृतकुंड की स्थापना कर, बीदर के लोगों को मीठे पानी का उपहार दिया। बीदर शहर, कर्नाटक के उत्तर में सबसे पहला शहर है इसलिए यह कर्नाटक का ताज़ भी कहलाता है। 

बीदर में मेरी यात्रा 

   सिकंदराबाद से सुबह चार बजे ट्रेन पकड़कर मैं सुबह आठ बजे के लगभग बीदर पहुँच गया था। पूरी रात ठीक से ना सो पाने के कारण मेरी आँख देर से खुली और मैंने देखा ट्रेन बीदर पर काफी देर की आकर खड़ी हो गई थी। वह तो अच्छा था कि यह ट्रेन केवल बीदर तक ही थी अन्यथा हो सकता है मैं सोते हुए आगे भी निकल जाता। खैर, आज नई साल का पहला दिन है, मैं स्टेशन मास्टर साब  के पास पहुंचा और उन्हें नववर्ष की मंगलमय बधाई देकर उनसे वेटिंग रूम की चाबी मांगी। उत्तर भारतीय यात्री जानकार उन्होंने मुझे सहर्ष चाबी दे दी और मैं वेटिंग रूम में नहाधोकर तैयार हो गया। बीदर का रेलवे स्टेशन सिकंदराबाद से लातूर रेलवे लाइन पर स्थित है, यह रुट केवल सिंगल रेलवे लाइन के माध्यम से जुड़ा है, जिसपर केवल डीजल इंजन ही दौड़ते हैं। 

   स्टेशन से बाहर निकलकर मैं मुख्य चौराहे पर पहुंचा, यहाँ एक दुकान पर चाय पीते हुए मैंने दूकानदार से किराये पर मिलने वाली साइकिल के बारे में पूछा। दूकानदार ने स्टेशन के दूसरी ओर इशारा करते हुए कहा - आप दूसरी साइड चले जाइये, वहाँ एक दुकान है जहाँ आपको किराये पर पूरे दिन के लिए साइकिल मिल जायेगी। चाय वाले की बात मानकर मैं स्टेशन के दूसरी साइड पहुँचा और एक फूलमाला वाले की दुकान पर साइकिल वाले का पता किया। उसने बताया कि दुकान तो यही है परन्तु 9:30 बजे खुलेगी। करीब 10 बजे वह साइकिल वाले दुकानदार आये और अपनी Id और बैग यहाँ रखकर, साइकिल उठाई और मैं बीदर शहर की यात्रा पर निकल पड़ा। 

मछलीपट्टनम - बीदर स्पेशल , मैं इसी ट्रेन से आया था। 

BIDAR RAILWAY STATION 

स्टेशन के सामने साइकिल की दुकान पर 


चौबारा क्लॉक टावर 

रेलवे लाइन के पुल से नीचे से निकलते ही सामने एक चौराहा था, जहाँ पुराने शहर के रास्ते जाने के लिए एक बड़ा गेट दिखाई देता है, इसे नई कामा के नाम से जाना जाता है। यह पुराने बीदर किले या नगर का प्रवेश द्वार है। इसी रास्ते पर थोड़ा आगे जाने पर एक चौराहा आता है, इसे चौबारा कहते हैं। चौराहे के बीचोंबीच एक बड़ा क्लॉक टावर है जो शहर की एक ऐतिहासिक ईमारत है, माना जाता है कि इसका निर्माण बहमनी शासनकाल के दौरान हुआ था। इस क्लॉक टावर में एक बड़ी घडी लगी है जो समस्त शहर को समय दिखाती है। 

नई कामा - बीदर 


BIDAR CLOCK TOWER 

बहमनी सल्तनत के सुल्तान 

बहमनी सल्तनत 179 वर्ष तक अस्तित्व में रही, जिसपर कुल 18 बहमनी सुल्तानों ने राज्य किया। देवगिरि अथवा दौलताबाद के बाद अलाउद्दीन हसन बहमनशाह, जो बहमनी सल्तनत का वास्तविक संस्थापक भी था, ने अपनी नई राजधानी गुलबर्गा को बनाया और इसके बाद 1436 ई. में अहमदशाह वली ने सल्तनत की राजधानी गुलबर्गा से हटाकर बीदर में स्थापित की। बहमनी सुल्तानों में कुछ योग्य सुल्तान थे जिन्होंने बहमनी सल्तनत का अधिकतम विस्तार किया और राज्य के विकास हेतु अनेक योगदान भी दिए। इन्ही सुल्तानों के मक़बरे आज भी बीदर से 5 किमी दूर अस्तूर नामक ग्राम के समीप स्थित हैं। इन सुल्तानों का विवरण क्रमानुसार निम्नलिखित है -

अलाउद्दीन हसन बहमनशाह ( 1347 - 1358 . )

 सन 1347 ई. में वह अलाउद्दीन हसन बहमनशाह की उपाधि धारण कर दौलताबाद के सिंहासन पर आसीन हुआ। सुल्तान बनने के पश्चात उसने अपनी राजधानी दौलताबाद के स्थान पर गुलबर्गा को बनाया और उसने अपने राज्य को चार प्रांतों में विभाजित किया। ये चार राज्य क्रमशः दौलताबाद, बरार, अहमदनगर और बीदर थे। बहमनशाह स्वयं को तुगलक वंश का उत्तराधिकारी समझता था। वह एक योग्य और कुशल प्रशासक था, उसने दक्षिण में अपने साम्राज्य का काफी विस्तार किया और अपने कृष्णा नदी को अपने राज्य की सीमारेखा बनाया। हालांकि वह एक न्याय और उदारपूर्ण शासक था किन्तु हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति असहिष्णु और अत्याचार की ही थी। सन 1358 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।   

मुहम्मदशाह प्रथम  ( 1358 - 1375 ई. )

अलाउद्दीन हसन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुहम्मदशाह प्रथम बहमनी राज्य का सुल्तान बना। अपने पिता के समान उसमें भी एक योग्य सेनापति और प्रशासक के सभी गुण मौजूद थे, उसने सेना का पुनर्गठन पर विशेष ध्यान दिया। हिन्दुओं के प्रति उसकी भी नीति असहिष्णुता और अत्याचार की ही थी। उसने वारंगल और विजय नगर जैसे हिन्दू राज्यों पर आक्रमण किये, वहां के लोगों का निर्दयतापूर्वक वध कराकर नगरों को लूटा और मंदिरों को तोड़कर तहस नहस किया। उसने 1358 से 1375 तक सफलता पूर्वक राज्य किया और अंत में 1375 में उसकी मृत्यु हो गई। 

मुहाजिब शाह और दाऊद  ( 1375 - 1378ई. )

मुहम्मदशाह की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र मुहाजिब शाह सुल्तान बना। मुहाजिब शाह के शासनकाल में एकबार फिर बहमनी सल्तनत और विजय नगर साम्राज्य का युद्ध हुआ। युद्ध की शुरुआत में तो सुल्तान को सफलता मिली किन्तु अडोनी दुर्ग पर वह विजय हासिल ना कर सका और उसे विजयनगर के हिन्दू सम्राट बुक्का से संधि करनी पड़ी और वह वापस गुलबर्गा लौट आया। उसके बाद उसके चाचा दाऊद ने षड्यंत्रपूर्वक उसकी हत्या कर दी और स्वयं सुल्तान बन बैठा। सुल्तान बनने के एक माह बाद ही दाऊद की भी हत्या कर दी गई और इसके बाद हसन के पौत्र मुहम्मद शाह द्वितीय को बहमनी सल्तनत का सुल्तान बनाया गया। 

मुहम्मदशाह द्वितीय ( 1378 - 1397 ई. )

मुहम्मदशाह द्वितीय शांतिप्रिय और अध्ययन में रूचि रखने वाला सुल्तान था, उसे युद्धों से सख्त घृणा थी। उसने शांतिपूर्ण नीति का पालन किया और उसके शांतिपूर्ण शासनकाल में गुलबर्गा विद्वानों का केंद्र बन गया। उसी के शासनकाल में गुलबर्गा के किले में जामामस्जिद का निर्माण हुआ। मुहम्मदशाह द्वितीय ने अपने शासनकाल में ईरान के प्रसिद्ध कवि हाफ़िज़ शीराजी को दरबार में आने का निमंत्रण दिया। इसी के शासनकाल के दौरान गुलबर्गा में भीषण अकाल पड़ा जिसमें सुल्तान ने राज्य की जनता के लिए खाद्यान और राहत कार्यों की व्यवस्था की। 1397 ई. में सुल्तान की मृत्यु हो गई। इसके बाद गयासुद्दीन और शमशुद्दीन क्रमशः सुल्तान बने किन्तु अयोग्य होने के कारण शीघ्र ही अपदस्थ हो गए। 

फ़िरोज़शाह (1397 - 1422 ई. )

फ़िरोज़शाह विलासी प्रवृति का व्यक्ति था, उसने अपने शासनकाल के दौरान विजयनगर राज्य के विरुद्ध तीन सैन्य अभियान किये किन्तु इन अभियानों से सल्तनत को कोई खास लाभ नहीं हुआ। अपने 25 वर्ष के शासनकाल के बाद अत्यधिक विलासी जीवन जीने से उसका स्वास्थ गिर गया और कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई

अहमदशाह प्रथम ( 1422 - 1436 ई. )

फ़िरोज़शाह की मृत्यु के बाद उसका भाई अहमदशाह, बहमनी सल्तनत का सुल्तान बना। उसने अपने शासनकाल में राजधानी गुलबर्गा से हटाकर बीदर में स्थानांतरित की और बीदर से ही राज्य का सञ्चालन आरम्भ किया। अपने शासनकाल में उसने विजय नगर और वारंगल जैसे राज्यों से युद्ध किया और इन राज्यों को कर देने के लिए विवश किया। दक्षिण भारत की सफलता के बाद उसने मालवा की ओर अपना रुख किया और मालवा के सुल्तान हुसैनशाह को पराजित किया। उसके शासनकाल में उसे उसकी धर्मनिष्ठा और न्यायप्रिय होने के लिए जाना जाता है। भारतीय इतिहास में वह संत या वली के नाम से प्रसिद्ध है। 1436 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। 

अलाउद्दीन अहमदशाह ( 1436 - 1458 ई. )

अहमदशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अलाउद्दीन अहमदशाह बीदर का सुल्तान बना। उसके भाई मुहम्मद ने उसके खिलाफ विद्रोह किया जिसका सुल्तान ने सफलतापूर्वक दमन किया। सुल्तान ने अपने भाई मुहम्मद को माफ़ करके उसे रायचूर का सूबेदार नियुक्त किया। उसने विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण करके वहां के शासक देवराय को कर देने हेतु बाध्य किया। अलाउद्दीन अहमदशाह ने बीदर में मस्जिदों, विद्यालयों और चिकित्सालयों का निर्माण कराया तथा उसमे हिन्दू और मुस्लिम दोनों की नियुक्ति की । 1458 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

हुमाँयु  ( 1458 - 1461 ई. )

अलाउद्दीन अहमदशाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमाँयु बीदर का सुल्तान बना। भारतीय इतिहास में अत्यधिक निर्दयी होने के कारण इसे जालिम भी कहा जाता है। 

निज़ामशाह ( 1461 - 1463 ई. )

हुमाँयु की मृत्यु के बाद उसका आठ वर्षीय पुत्र अपनी माता मक़दूमेजहाँ के संरक्षण में सिंहासन पर बैठा किन्तु वर्ष पश्चात ही उसकी मृत्यु हो गई। 

मुहम्मद शाह तृतीय ( 1463 - 1482 ई. )

निज़ामशाह की मृत्यु के बाद उसका भाई मुहम्मदशाह तृतीय भी नौ वर्ष की नाबालिग अवस्था में सुल्तान बना। मुहम्मद शाह तृतीय को उसके प्रधानमंत्री महमूद गँवा का संरक्षण प्राप्त था और उसी ने ही सुल्तान की उचित शिक्षा की व्यवस्था की। उसने महमूद गँवा को पूर्ण विश्वास और सम्पूर्ण शक्ति प्रदान की। महमूद गँवा ने भी पूर्ण निष्ठा के साथ साम्राज्य और सुल्तान की सेवा की। महमूद गँवा की कुशल प्रशासन नीति से बहमनी सल्तनत का अधिकतम विस्तार हुआ और राज्य को नई मजबूती मिली। उसकी कुशलता देखकर दरबार के अन्य अमीर उससे ईर्ष्या रखने लगे और उसके खिलाफ सुल्तान के समक्ष उसके देशद्रोही होने के झूठे सबूत पेश किये।  दरबारी अमीरों के षड्यंत्र में फंसकर नशे की हालत में सुल्तान ने महमूद गँवा की हत्या का आदेश दे दिया। सुल्तान की इस आज्ञा का तुरंत पालन किया गया और महमूद गँवा की हत्या कर दी गई। गँवा की मृत्यु के बाद बहमनी सल्तनत का पतन होना आरम्भ हो गया और कुछ समय बाद सुल्तान की भी मृत्यु हो गई। 

महमूद गँवा जैसे योग्य सेनापति की मृत्यु के बाद बहमनी सल्तनत का पतन आरम्भ हो गया और 1526 ई. में एक अमीर अलीबरीद ने आखिरी अयोग्य बहमनी सुल्तान को अपदस्थ कर स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और बीदर में फिर एक नए वंश बरीदशाही की स्थापना कर सुल्तान बन गया। इस प्रकार बहमनी साम्राज्य का अस्तित्व लगभग 179 वर्ष तक रहा जिसमें कुल 18 सुल्तान हुए जिनमें से केवल कुछ  सुल्तान योग्य थे।  

महमूद गँवा 

हालाँकि महमूद गँवा, सल्तनत का प्रधानमंत्री था किन्तु सल्तनत के प्रति उसकी वफ़ादारी और उसकी कुशल क्षमता उसे बहमनी सल्तनत का अभिन्न हिस्सा मानने को मजबूर करती है। ह एक योग्य सेनापति और कुशल प्रशासक था। उसने अपने सम्पूर्ण जीवन को बहमनी राज्य की सेवा में लगा दिया था। उसके शासन के दौरान बहमनी राज्य सर्वाधिक समृद्ध था। उसने बीदर में शिक्षा के उद्देश्य हेतु एक महाविद्यालय की स्थापना की।

BREAKFAST TIME - 10:30 AM

बीदर में मेरा सुबह का नाश्ता 

महमूद गँवा का मदरसा 

चौबारे से अगला चौक, गँवा चौक कहलाता है। इस चौक का नाम बहमनी सल्तनत के कुशल और योग्य प्रधानमंत्री महमूद गँवा के नाम पर रखा गया है जिन्होंने बीदर शहर के विकास और बहमनी सल्तनत के लिए अनेक योगदान दिए थे। इन्हीं योगदानों में महत्वपूर्ण है उसके द्वारा बनबाया गया महाविद्यालय जो उसने बहमनी सल्तनत में शिक्षा के उचित प्रसार हेतु बनबाया था। इसके अवशेष आज भी बीदर शहर में देखे जा सकते हैं। इसके दोनों किनारों पर ऊँची ऊँची मीनारे स्थापित थीं जिनमें से अब केवल एक ही शेष बची है। पुरातत्व विभाग के अनुसार यह उस समय एक बड़ा अध्ययन केंद्र था जहाँ 1000 छात्रों के रहने हेतु निःशुल्क आवास की सुविधा उपलब्ध थी। 1696 ई. में औरंगजेब के नेतृत्व में मुगलसेना ने इस पर कब्ज़ा कर लिया और दुर्घटनावश यहाँ बारूद के ढेर में आग लगने से इसका एक हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया। 



महमूद गँवा का मदरसा 







बीदर का किला 

गँवा चौक से थोड़ा आगे बढ़ने पर बीदर का किला दिखाई देता है। चूँकि बीदर का किला और बीदर शहर एक ऊँचे पहाड़ जैसे स्थान पर स्थित है इसलिए किले के बाद की धरती काफी नीचे दिखाई देती है। किले के शहर की तरफ के भाग में बहुत ही गहरी खाई बनी हुई है। किले के शेरज़ा नामक दरवाजे से प्रवेश करने के बाद यह खाई दिखाई देने लगती है। किले का निर्माण काले ग्रेनाइट के पत्थरों से हुआ है। किले में प्रवेश करने के बाद सर्वप्रथम लकड़ी से बना रंगीन महल दिखाई देता है जिसके गेट पर सुरक्षा की दृष्टि से अभी ताला लगा हुआ था। 

रंगीन महल से थोड़ा आगे हजारा कोठरी है जो गौर से देखने पर किले का कारागार मालूम होता है, यहाँ एक मस्जिद के अवशेष भी देखे जा सकते हैं। यहाँ से थोड़ा आगे बढ़ने पर इस किले का सुन्दर महल दिखाई देता है जिसे गगनमहल कहा जाता है, इसी के ठीक बराबर में सोलह खम्भा मस्जिद दर्शनीय है। 

इन इमारतों को देखने के बाद हम चौदहवीं शताब्दी में जीवित रहे पुराने बीदर किले की तरफ बढ़ जाते हैं। यहाँ तख़्त महल, दीवाने खास और दीवाने आम खंडहरों के रूप में स्थित हैं जो सुरक्षा  की दृष्टि से पर्यटकों हेतु बंद हैं। यहाँ से किले के विशाल भूभाग को देखा जा सकता है। 

किले के बीचोंबीच विशाल आयुधागार भी बनी है जिसका प्रयोग शाही सेना द्वारा बारूद बनाने के लिए किया जाता था। आयुधागार देखने के बाद जब मैं इससे आगे बढ़ा तो मुझे एक बस्ती नजर आई, जहाँ घरों के बाहर पत्थरों के छोटे बड़े गोले पड़े हुए थे। मैंने इन्हें देखकर कुछ समझ नहीं सका परन्तु किले की दीवार के नजदीक एक ऊँचे बुर्ज पर रखी विशाल तोप को देखकर मुझे समझ आ गया कि पत्थरों के ये गोले इसी तोप के थे। यह एक विशाल तोप है जिसपर फ़ारसी भाषा में कुछ लिखा हुआ था। 

इससे थोड़ा आगे दूसरे बुर्ज पर एक और तोप रखी हुई थी जो उसके मुकाबले थोड़ी छोटी थी। इस किले की आखिरी इमारत चाँदनी चबूतरा है जो एक सीढ़ीदार ऊँचे चबूतरे पर बना हुआ है। यह क्या है, और किसलिए है इसका कोई पता नहीं है। हो सकता है यहाँ किसी समय रंगमंच का कोई कार्यक्रम होता होगा। 

BIDAR FORT

MY RENTED CYCLE AT BIDAR FORT



SHERZA GATE - BIDAR FORT


BIDAR FORT

BIDAR FORT

RANGEEN MAHAL AT BIDAR FORT

BIDAR FORT 

HAZARA KOTHRI AT BIDAR FORT 

HAZARA KOTHRI - BIDAR FORT


A JAMA MASJID IN BIDAR FORT

GAGAN MAHAL - BIDAR FORT

SOLAH KHAMBHA MASJID - BIDAR FORT


SOLAH KHAMBHA MASJID - BIDAR FORT

BACK SIDE OF SOLAH KHAMBHA MASJID

A BULL STATUE - AS NANDI

OLD BIDAR FORT GATE 

ENTRY GATE OF OLD BIDAR FORT

TAKHAT MAHAL - BIDAR FORT


A PLACE IN BIDAR FORT

OLD BIDAR FORT RUINS

OLD BIDAR FORT

A MOSQUE IN OLD BIDAR FORT

DEEWANE - E - AAM AT BIDAR FORT


DEEWANE - E - AAM AT BIDAR FORT


DEEWANE - E - AAM AT BIDAR FORT


DEEWANE - E - AAM AT BIDAR FORT

AREA IN BIDAR FORT

GUNPOWER MAGJIN

A VILLAGE IN BIDAR FORT 

MAHARANA PRATAP TEMPLE - BIDAR FORT

CHANDANI CHABUTARA - BIDAR FORT 

A CANON IN BIDAR FORT




BIG CANON IN BIDAR FORT



बहमनी शासकों के मक़बरे - अस्तूर 

करीब डेढ़ से दो घंटे घूमने के बाद मैं साइकिल लेकर अस्तूर की तरफ चल पड़ा, अस्तूर बीदर का एक छोटा सा गाँव है जो बीदर से 5 किमी दूर है। यहाँ बहमनी शासकों के मकबरे एक लाइन से बने हुए हैं। मैं जब किले से यहाँ के लिए निकला तो दुल्हन दरवाजा पार करने के बाद काफी ढलान शुरू हो गई और साइकिल तेज रफ़्तार से दौड़ने लगी। इसका मतलब था कि मैं अब बीदर शहर और किले से दूर पहाड़ से नीचे उतरता जा रहा था। कुछ ही समय में मैं बहमनी मकबरों तक पहुँच गया। यहाँ बहमनी शासकों के 10 - 11 मकबरे बने हैं,  इसके अलावा यह स्थान बहमनी शासकों की कब्रगाह भी है। सुल्तान हुमांयु का मकबरा एक तरफ से पूर्णतः क्षतिग्रस्त है और कुछ अन्य मकबरे भी इसी स्थिति में हैं। 

सुल्तान अहमदशाह वली के मकबरे के सिवा सभी मकबरे पर्यटकों हेतु बंद हैं। केवल अहमदशाह वली का मकबरा इसलिए खुला है क्योंकि यहाँ के निवासी उसे आज भी वली या संत के रूप में आज भी पूजते हैं और इन श्रद्धालुओं में मुस्लिम कम बल्कि हिन्दुओं की ज्यादा श्रद्धा है। मैंने यहाँ हिंदू स्त्रियों को झाड़ फूंक करवाते हुए और सुल्तान के मकबरे की चौखट पर माथा टेकते हुए देखा था और वहीँ मुस्लिम महिलाओं को नई साल की पार्टी मनाते हुए जिसमें वे चावल और गोश्त पका रही थीं। सभी मकबरे देखने के बाद मैं यहाँ से चोकुंडी की तरफ रवाना हो गया। 

CLUSTER OF BAHMANI TOMBS

FRIEND'S IN BIDAR

GRAVE OF SULTAN HUMANYU

SULTAN HUMANYU TOMB

BAHMANI TOMBS

AHMADSHAH VALI TOMBS

AHMADSHAH VALI TOMBS

ASTOOR

BAHAMANI TOMBS CLUSTER

A TOMB IN BAHAMNI TOMBS CLUSTER'S

BAHAMNI TOMBS

BAHMANI TOMBS AND GRAVE



SULTAN HUMANYU TOMB - BIDAR

SULTAN HUMANYU TOMB

ALAUDDIN AHMADSHAH TOMB - BIDAR

A VIEW OF HUMANYU TOMB - BIDAR

ALAUDDIN AHAMADSHAH TOMB - BIDAR


चौकुण्डी - हज़रत ख़लील उल्लाह का मक़बरा 

अस्तूर से बीदर लौटते समय रास्ते में चौकुण्डी नामक स्थान है। यह प्रसिद्ध संत हज़रत खलील उल्लाह का मक़बरा है जो अलाउद्दीन अहमदशाह ( 1436 - 1458 ई.) के शासनकाल में 1431ई. में बीदर आये थे और सुल्तान के दरबार धर्मगुरु के पद पर आसीन थे। उनकी मृत्यु के बाद उन्हें भी अस्तूर में बहमनी सुल्तानों की कब्रगाह के नजदीक दफ़ना दिया गया और उनकी कब्र के ऊपर एक शानदार मकबरे का निर्माण किया गया। इस मकबरे को  चौकुण्डी कहा जाता है। यहाँ उनके अलावा उनके वंशजों की कब्रें मौजूद हैं। 


CHOUKUNDI AT BIDAR

HAZRAT KHALIL ULLAH TOMB AS NAME CHOUKUNDI IN BIDAR

CHOUKUNDI

A TOMB AT CHOUKUNDI


A VIEW OF ASTOOR IN BIDAR


श्री क्षेत्र झरणी नर्सिंह मंदिर 

चौकुण्डी से आगे का रास्ता काफी चढ़ाई वाला था, इसलिए मुझे साइकिल के साथ पैदल पैदल ही सफर  करना पड़ा। बीदर बाईपास रोड से होकर मैं पहाड़ की तलहटी में बसे नर्सिंह भगवान के मंदिर पहुँचा। आज नई साल  का पहला दिन था इसलिए काफी भक्त यहाँ दर्शन करने के लिए आये हुए थे। इन्हीं भक्तों के साथ दर्शन की  लाइन में मैं भी लग गया और विष्णु भगवान के अवतार नर्सिंह जी के दर्शन किये। भगवान् की मूर्ति पहाड़ की तलहटी में एक गुफा में विराजमान है जहाँ वर्षभर पानी भरा रहता है। 

BIDAR BYPASS ROAD

SHRI JHARNI NARSIMHA TEMPLE - BIDAR


A KUND IN TEMPLE


SHRI JHARNI NARSIMHA TEMPLE BIDAR



WELCOME TO KARNATAKA



श्री झिरा साहिब गुरुद्वारा 

शाम के चार बजने वाले थे और मैंने सुबह से सिवाय उस डोसे के कुछ भी नहीं खाया था। इसलिए मुझे भूख भी लगी और आज काफी सालों के बाद मैंने साइकिल चलाई थी इसलिए मैं बहुत थक भी गया था। मेरी लौटने की ट्रेन सवा छः बजे है इसलिए मेरे पास अब समय भी कम बचा था। इसलिए साइकिल की स्पीड थोड़ी तेज करके मैं बीदर के पश्चिमी शहर की तरफ बढ़ा जहाँ प्रसिद्ध श्री झिरा साहिब गुरुद्वारा स्थित है। मैं जब गुरूद्वारे पहुँचा तो इसकी भव्यता को देखता ही रह गया। ऐसा गुरुद्वारा मैंने केवल अमृतसर में ही देखा था जो स्वर्ण मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। उस गुरूद्वारे के बाद दूसरा बड़ा गुरुद्वारा मैंने श्री झिरा साहिब का ही आज देखा है। 

सबसे पहले मैंने अमृतकुंड के दर्शन किये जिसके बारे में प्रचलित है कि गुरुनानक देव जी ने बीदर की जनता को खारे पानी की समस्या से निजात दिलाकर अपने पैर को हटाते ही मीठे पानी का फुब्बारा खोल दिया था। आज यही मीठे पानी का फुब्बारा अमृतकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। मुझे भूख लगी थी इसलिए मैं सबसे पहले लंगर भवन की तरफ गया और भरपेट लंगर ग्रहण किया। लंगर का प्रसाद बहुत ही स्वादिष्ट था, मेरे पूरे दिन की थकान गुरूद्वारे में आकर समाप्त हो गई। 

ENTRY GATE OF SHRI JHIRA SAHIB GURUDWARA

GURUDWARA SHRI NANAK JHIRA SAHIB BIDAR


AMRIT KUND AT SHRI JHIRA SAHIB GURUDWARA

SHRI JHIRA SAHIB GURUDWARA - BIDAR



GURUDWARA SHRI JHIRA SAHIB 



गुरूद्वारे से लौटकर सीधे मैं स्टेशन की तरफ रवाना हुआ क्योंकि अब मेरी ट्रेन को छूटने में ज्यादा समय नहीं बचा था। रास्ते में एक दूकान से बीदर की गर्मागर्म जलेबी भी पैक करा ली और साइकिल वाले भाईसहाब के पास पहुँचा। पाँच रूपये घंटे के हिसाब से मैंने साइकिल के किराये का भुगतान किया और अपनी आईडी और बैग लेकर स्टेशन पहुंचा। बीदर से यशवंतपुर जाने वाली स्पेशल तैयार खड़ी हुई थी। मैंने अपने कोच में जगह देखी तो यहाँ मोबाइल का चार्जिंग पॉइंट काम नहीं कर रहा था इसलिए मैं दूसरे जनरल कोच में पहुँचा। यह एकदम नया कोच था और यहाँ चार्जिंग की सुविधा भी उपलब्ध थी। इसी कोच में मैंने पहलीबार ऊपरवाली जनरल सीट को भी गद्दीदार पाया जिसपर मैंने अपना बिस्तर लगाया और सो गया।  

BIDAR RAILWAY STATION 

BIDAR RAILWAY STATION 


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