UPADHYAY TRIPS PRESEN'S
कर्नाटक की ऐतिहासिक यात्रा पर भाग - 9
राष्ट्रकूटों की राजधानी - मालखेड़
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चालुक्यों की बादामी देखने बाद अब मैं राष्ट्रकूटों की राजधानी मालखेड़ पहुंचा। मालखेड़, राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट के नाम से जाना जाता था। वर्तमान में मालखेड़ कर्नाटक के गुलबर्गा शहर से 40 किमी दूर कागिना नदी के किनारे स्थित है जहाँ उनके किले के खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं। इन्हीं खंडहरों को देखने के लिए मैं बादामी से रात को ट्रेन में बैठा और अगली सुबह चित्तापुर नामक रेलवे स्टेशन उतरा। हालांकि इससे अगला स्टेशन मालखेड़ रोड ही था, किन्तु इस ट्रेन का यहाँ स्टॉप ना होने के कारण मुझे चित्तापुर ही उतरना पड़ा।
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मैं सुबह आठ बजे के लगभग चित्तापुर पहुँच गया था। सुबह सुबह मेरे चोट वाले पैर में बहुत दर्द हुआ और मैं थोड़ी देर स्टेशन के बाहर एक चाय वाले की दुकान पर बैठा रहा। मुझे यहाँ से बस द्वारा मालखेड पहुंचना था इसलिए मैंने दुकानदार से बस स्टैंड का पता पूछा जो लगभग 1 किमी दूर था। आज पैर में बहुत तेज दर्द था जिससे मुझे चलने में काफी दिक्कत भी हो रही थी। एक बाइक वाले भाई ने अपनी बाइक से मुझे बस स्टैंड छोड़ दिया। यह बस स्टैंड काफी साफ़ सुथरा था, दो चार बसें यहाँ खड़ी भी हुईं थी परन्तु मालखेड जाने वाली बस थोड़ी देर बाद आई और मैं मालखेड के लिए रवाना हो गया।
कर्नाटक के रोडवेज की यह बस मालखेड़ के बस स्टैंड पहुंची। बस स्टैंड पर बनी एक दुकान पर ही मैंने अपना बैग रख दिया और मालखेड गाँव की गलियों में से होते हुए मैं किले तक पंहुचा। किले का विशाल द्वार और इसकी मजबूत दीवारें देखकर मुझे इसकी भव्यता का आभास हुआ। सफ़ेद संगमरमर के जैसे पत्थरों से बना यह दुर्ग आज भी चारों तरफ से मजबूत दिखाई देता है। दो से तीन गेट पार करने के बाद इस दुर्ग में प्रवेश किया जाता है जहां से खंडहरों का सिलसिला शुरू हो जाता है।
BREAKFAST TIME AT MALKHED
अत्यधिक समय बीत जाने के कारण इस दुर्ग में अब कोई राजमहल नहीं है। चारों तरफ सिर्फ घनी कंटीली झाड़ियों का ही साम्राज्य है। शराब की टूटी फूटी बोतलें चारों तरफ दिखाई देती हैं जिसका मतलब है कि एक समय का यह भव्य दुर्ग आज शराबियों और जुआरियों का अड्डा बन चुका है। इस किले को पुरातत्व विभाग का कोई संरक्षण प्राप्त नहीं है। पता नहीं क्यों इतने बड़े राजवंश की इस मुख्य धरोहर को भारतीय सरकार ने संरक्षण के लायक नहीं समझा। वर्ना यह स्थान पुरातत्व की धरोहर के साथ साथ इस महान पर्यटन स्थल भी बन सकता था।
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इस किले को देखने आने वाले पर्यटक केवल इस किले में बची उस ब्लैक मस्जिद को देखने आते हैं राष्ट्रकूटों की एक मात्र निशानी है इसके अलावा इसी मस्जिद के ठीक सामने एक बुर्ज भी दिखाई देता है जो राष्ट्रकूटों द्वारा निर्मित जैन मंदिर है। इस बुर्ज की सीढ़ियों पर प्रवेश करते समय चौखट पर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति दिखाई देती है। इस बुर्ज पर खड़े होकर समस्त किले का नजारा देखा जा सकता है। मैं इस बुर्ज को देखने के बाद पुनः उस मस्जिद को देखने गया।
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भयंकर सन्नाटे के बीच कंटीली झाड़ियों को हाथ से हटाते हुए मैंने उस ब्लैक मस्जिद में प्रवेश किया जो अब बिलकुल जर्जर अवस्था में पहुँच चुकी है। मस्जिद के अंदर बनी दिखालों और चौखटों को देखकर इसके मंदिर होने के प्रमाण स्पष्ट होते हैं। यह एक हिन्दू ईमारत है जिसे गौर से देखने और जानने के बाद एहसास होता है कि यह राष्ट्रकूट शासकों द्वारा किले के बीचोंबीच बनाया गया एक मंदिर था। इस मंदिर के गुम्बद का रंग काला होने के कारण इसे ब्लैक मस्जिद कहा जाता है। यह बिल्कुल जर्जर अवस्था में है जिसे देखकर लगता है यह कभी भी ध्वस्त हो सकती है। इस मस्जिद तक चढ़ने के लिए सीढ़ियां आज भी शानदार अवस्था में हैं।
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इसी मस्जिद के पीछे एक रास्ता किले के नदी वाले भाग तक गया है जहाँ आंजनेय हनुमान जी का मंदिर स्थित है। इस मंदिर में स्थित हनुमान जी की प्रतिमा बिल्कुल भिन्न है। यह अन्य हनुमान जी की प्रतिमाओं के जैसी नहीं है और देखने में यह प्राचीनकाल की दिखाई देती है। यहाँ पूजा कर रहे एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि यह बहुत प्राचीन है और इस किले के राजाओं के द्वारा पूजी जाती थी। राजा तो ख़त्म हो गए पर यह प्रतिमा आज भी यहाँ के लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई है। मैंने भी इस प्रतिमा के दर्शन किये और बाहर आकर किले के अन्य अवशेषों को खोजने लगा। यहाँ हर तरफ कंटीली झाड़िया हैं जिनकी वजह से कुछ दिखाई नहीं देता।
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परन्तु फिर भी मैंने एक ऐसा स्थान खोज ही लिया जिसका चबूतरा ही अब शेष रह गया था। प्राचीनकाल में इस चबूतरे पर क्या बने था यह कह पाना मुश्किल है परन्तु इसकी संरचना और अवशेषों को देखकर इसके मंदिर होने के संकेत मिलते हैं। आज मैंने मालखेड़ देख लिया था, वह मालखेड जो राष्ट्रकूटों की राजधानी था और इन्हीं राष्ट्रकूटों ने एलोरा के कैलाश मंदिर का निर्माण कराया था किन्तु अपनी ही राजधानी में इन्होने ऐसा कुछ भी नहीं बनाया जिसे देखकर मालखेड़ भारत के पर्यटन मानचित्र में दाखिल हो सकता।
राष्ट्रकूट राजवंश
बादामी के चालुक्यों के पतन के पश्चात् दक्षिण मध्य भारत में राष्ट्रकूट शासकों का उत्थान हुआ। राष्ट्रकूट शासक, शुरुआत में बादामी के चालुक्यों के सामंत थे। चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु के पश्चात राष्ट्रकूटों ने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और अपनी सत्ता स्थापित की। दन्तिदुर्ग नामक एक चालुक्य सामंत ने राष्ट्रकूट वंश की स्थापना की।
दन्तिदुर्ग ( 735 से 756 ई. )
दन्तिदुर्ग ही राष्ट्रकूट राजवंश का संस्थापक था। दन्तिदुर्ग ने एलोरा में दशावतार मंदिर का निर्माण करवाया था।
कृष्ण प्रथम ( 756 से 774 ई. )
कृष्ण प्रथम, दन्तिदुर्ग का चाचा था। कृष्ण प्रथम ने ही एलोरा के विश्व विख्यात कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया था। कृष्ण प्रथम ने ही बादामी के अंतिम चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन द्वितीय का पूर्ण रूप से दमन करके पश्चिमी चालुक्य वंश को समाप्त कर दिया था।
गोविन्द II ( 774 से 780 ई. )
यह एक अयोग्य शासक था जो भोग विलास में विलुप्त रहता था इसलिए उसके छोटे भाई ध्रुव वर्ष ने इसे सिंहासन से हटकर स्वयं राज्य की वागडोर संभाली।
ध्रुववर्ष ( 780 से 793 ई. )
ध्रुव वर्ष ने अपने अयोग्य भाई गोविंद II को सिंहासन से हटाकर पुनः राष्ट्रकूट वंश की नींव मजबूत की और उत्तर की ओर साम्राज्य का विस्तार करने हेतु सेना सहित कूच किया। दरअसल उन दिनों हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज उत्तर भारत का समृद्ध केंद्र बन चुका था जिसपर सत्ता हथियाने के उद्देश्य से अवन्ति के प्रतिहार वंश के शासक वत्स राज और पूर्व के पाल शासक धर्मपाल वे बीच आपसे झड़पें और युद्ध होता रहता था।
उनका मानना था का देश में इनके समान कोई ऐसा शासक नहीं है जो कन्नौज की राजगद्दी को संभल सके। यह बात जब ध्रुव तक पहुंची तो उससे रहा ना गया और अपनी विशाल राष्ट्रकूट सेना लेकर उसने वत्स राज पर चढ़ाई कर दी। वत्स राज ध्रुव के हाथों पराजित हुआ और अवन्ति वापस लौट गया।
वहीँ वत्स राज को पराजित करने के बाद, ध्रुव ने अपनी सेना धर्मपाल की ओर मोड़ दी और धर्मपाल को युद्ध में पराजित कर कन्नौज को अपने अधीन किया। इस प्रकार ध्रुव ने साबित कर दिया कि राष्ट्रकूट शासक ही इस समय के सबसे शक्तिशाली शासक हैं और राष्ट्रकूट सबसे शक्तिशाली राजवंश। कुछ समय कन्नौज में बिताने के बाद ध्रुव वापस अपनी राजधानी लौट गया और उसके जाने के बाद धर्मपाल ने कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया।
इसप्रकार एक राज्य के लिए तीन महान शासकों का यह युद्ध भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उत्तर पर विजय प्राप्त करने के बाद ध्रुव ने दक्षिण में गंगवंश और काँची के पल्लवों को हराकर उनकी राजधानी पर अपना अधिकार कर लिया।
गोविन्द III ( 793 से 814 ई. )
ध्रुव धारवर्ष की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र गोविन्द III राष्ट्रकूट शासक हुआ। उसकी योग्यता को देखकर ही ध्रुव ने उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। ध्रुव के बड़े पुत्र स्तम्भ को यह सहन नहीं हुआ और उसने विद्रोह कर दिया और 12 राजाओं की संघ सेना सहित अपने भाई गोविन्द पर आक्रमण किया जिसे गोविन्द ने अपने अन्य भाई इंद्र की सहायता से असफल किया और अपने भाई स्तम्भ को बंदी बना लिया।
दयालु स्वभाव होने के कारण उसे अपने भाई पर दया आ गई और उसे क्षमा करके गंग प्रदेश का प्रशासक नियुक्त कर दिया। गंग राज्य पर अपना अधोकर स्थापित करने के बाद उसने वेंगी के शासक विजयादित्य को पराजित करके अपनी निजी सेवा में चाकर के रूप रख लिया और उसके बाद पल्लवों से कांची छीनकर अपने साम्राज्य में मिलाया।
इसप्रकार दक्षिण पर सफलता प्राप्त करने के बाद उसका ध्यान उत्तर भारत की तरफ आकर्षित हुआ जहाँ उसके पिता ध्रुव के शासकाल से ही कन्नौज को लेकर गुर्जर प्रतिहार और बंगाल के पाल शासकों में भिंडत चल रही थी। इस समय भी कन्नौज पर गुर्जर प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का शासन था और पालशासक धर्मपाल उससे कन्नौज को छीनने के लिए युद्ध रत था।
गोविन्द ने अपनी सेना सहित कन्नौज पर आक्रमण करने के लिए कूच किया। उसे रोकने के लिए नागभट्ट द्वितीय ने बुंदेलखंड में उसका सामना किया। परन्तु अपने पिता की ही भाँती वह भी गोविन्द के हाथों पराजित हुआ और मारवाड़ की तरफ जाकर अपनी जान बचाई।
नागभट्ट को पराजित करने के बाद गोविन्द की सेना कन्नौज पहुंची। पालशासक धर्मपाल, पहले से ही राष्ट्रकूटों की शक्ति से भलीभाँति परचित था अतः उसने बिना युद्ध किये ही गोविन्द III के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। क्योंकि वह यह अच्छी तरह जानता था कि राष्ट्रकूटों का कन्नौज पर आक्रमण मात्र राष्ट्रकूट सेना का शक्ति परीक्षण था, उत्तर भारत पर राज्य करना नहीं।
राष्ट्रकूट जल्द ही कन्नौज से चले जायेंगे और उसे बिना किसी अवरोध के कन्नौज का राज्य मिल ही जायेगा, और ऐसा ही हुआ। गोविन्द III अपनी सेना लेकर वापस अपने राज्य लौट गया क्योंकि कन्नौज को राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिलाकर भी उसपर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता था जिसका सबसे मुख्य कारण दूरी का होना था।
गोविन्द III ने भी अपने पिता की भाँति इस त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लिया और दोनों गुर्जर प्रतिहार व् पाल शासकों को पराजित करके राष्ट्रकूटों की सर्वोच्च शक्ति को प्रमाणित किया। अतः गोविन्द तृतीय राष्ट्रकूट शासकों में महान और शक्तिशाली शासक कहलाया।
अमोघवर्ष नृपतुंग ( 814 - 878 ई. )
गोविन्द III ने अपनी मृत्यु के समय अपने अल्पवयस्क पुत्र अमोघवर्ष को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और कर्कराज को उसका संरक्षित नियुक्त किया। अमोघवर्ष मात्र 7 वर्ष की अल्पायु में राजसिंहासन पर बैठा। उसकी अल्पायु के कारण अनेक मंत्रियों और सामंतों ने विद्रोह कर दिया और वेंगी के शासक विजयादित्य की सहायता से उसे सिंहासन से उतार फेंका। अपने साहस के दम पर और कर्कराज की सहायता से उसने अपने मंत्रियों और सामंतों के विद्रोह को दबाया और पुनः अपना राज्य सिंहासन प्राप्त किया।
वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य II को हराने के बाद उसने वीरनारायण की उपाधि धारण की और मान्यखेत को अपनी नई राजधानी बनाया। यह मान्यखेत ही वर्तमान में मालखेड़ कहलाता है। अमोघवर्ष की तुलना शिवि और दधीचि जैसे पौराणिक दानवीरों से की गई हैं क्योंकि अपने राज्य में बढ़ते हुए भीषण अकाल को रोकने के लिए उसने अपनी एक ऊँगली काटकर माता लक्ष्मी को चढ़ा दी थी। अमोघवर्ष के दरबार में प्रसिद्ध अरब यात्री सुलेमान आया था जिसने उसकी तुलना संसार के चार महान शासकों में की है। बाकी तीन महान शासक रोम, चीन और बगदाद के खलीफा थे।
अमोघवर्ष ने जैन धर्म का अनुयायी होने के बाबजूद हिन्दू देवी देवताओं का आदर किया करता था और वह हिन्दू देवी महालक्ष्मी का परम भक्त भी था।
कृष्ण द्वितीय ( 878 - 914 ई. )
अमोघवर्ष का पुत्र कृष्ण II एक अयोग्य शासक था। उसका अधिकतर शासनकाल चालुक्यों के साथ संघर्ष में व्यतीत हुआ। कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों के साथ भी कृष्ण द्वितीय के अनेक युद्ध हुए, पर न गुर्जर प्रतिहार दक्षिणापथ को अपनी अधीनता में ला सके और न ही गोविन्द तृतीय के समान कृष्ण द्वितीय ही हिमालय तक विजय यात्रा कर सका।
इन्द्र III ( 914 - 929 ई. )
इंद्र III राष्ट्रकूट वंश का एक योग्य शासक था। इसने अपने शासनकाल में कन्नौज पर आक्रमण करके उसे नष्ट कर दिया था। इंद्र III ने त्रिपक्षीय संघर्ष का अंत करके कन्नौज को लूटकर नष्ट भ्रष्ट कर दिया, कन्नौज के वैभव की सम्पदा और भव्यता अब समाप्त हो गई। इंद्रा III ने पाल शासक महिपाल को पराजित किया। वह अपनी जान बचाते हुए बंगाल की तरफ भाग खड़ा हुआ जिसका प्रयाग तक पीछा करते हुए राष्ट्रकूटों की सेना गंगाजल से अपनी प्यास शांत की।
अमोघवर्ष II ( 929 - 930 ई. )
यह मात्र एक वर्ष के लिए राजसिंहासन पर आसीन हुआ जिसके काल में किसी भी घटना का विवरण नहीं मिलता है।
गोविन्द चतुर्थ ( 930 - 936 ई. )
गोविंद चतुर्थ भी एक निर्बल शासक था जिसके शासनकाल में राष्ट्रकूटों की शक्ति क्षीण होने लगी थी। आस पास के राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी।
अमोघवर्ष III ( 936 - 939 ई. )
अमोघवर्ष III के शासन काल में राष्ट्रकूट साम्राज्य की सीमायें सिकुड़ने लगी थीं और इतना बड़ा शक्तिशाली साम्राज्य नाम मात्र का ही रह गया था।
कृष्ण III ( 939 - 967 ई. )
राष्ट्रकूट की क्षीण होती शक्ति को रोकने के लिए इस बार इन्द्र III के बाद एक और महान शासक कृष्ण III के नाम से सिंहासन पर आसीन हुआ जिसने अकालवर्ष की उपाधि धारण की। सिंहासन पर आसीन होने के बाद उसने राष्ट्रकूट सेना में फिर से जान सी फूंक दी थी और काँची पर आक्रमण किया। कांची पर विजय पताका लहराने के बाद उसने तंजौर पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इन विजयों के बाद उसने कांचियुम तंजेयकोन्ड ( कांची - तंजौर विजेता ) की उपाधि धारण की।
उत्तर भारत में भी उसने कालिंजर और चित्रकूट पर विजय प्राप्त की। निश्चय ही इतिहास ने अपने आप को एक बार फिर से दोहरा दिया था और डूबते हुए राष्ट्रकूट साम्राज्य ने एक बार फिर से कृष्ण III के शासन में उचित सम्मान और गरिमा को प्राप्त कर लिया था। एकबार फिर से राष्ट्रकूट साम्राज्य, भारत का सबसे बड़ा साम्राज्य बन गया था।
खोट्टिग अमोघवर्ष ( 967 - 972 ई. )
खोट्टिग अमोघवर्ष, कृष्ण तृतीय का छोटा भाई था जो उसकी मृत्यु उपरांत सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। परन्तु इसमें कृष्ण III जैसे योग्य और अनुभवी प्रशासक के गुणों का अभाव था। इसकारण अपने भाई द्वारा विस्तृत्त साम्राज्य को सहेज ना सका और राष्ट्रकूट साम्राज्य पत्न्नोमुख चला गया।
इसी के शासनकाल में परमार सेनाओं ने नर्मदा नदी को पार किया और मान्यखेत के दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया। खोट्टिग अमोघवर्ष परमार सेना को दुर्ग में प्रवेश करने ना रोक पाया और परमांर सेना मान्यखेत को नष्ट कर दिया। परमार सेना जाते जाते राष्ट्रकूटों के दानपत्रों को भी साथ लेती गई जो राष्ट्रकूटों की शक्ति का सबसे बड़ा अपमान था जिसे वृद्ध हो चुका खोट्टिग अमोघवर्ष सह ना सका और 972 ई में उसने अपने प्राण त्याग दिए।
कर्क II ( 972 - 973 ई. )
यह अंतिम राष्ट्रकूट शासक था। कर्क II को, तैलप द्वितीय ने परास्त करके राष्ट्रकूट राजवंश का अंत कर दिया और कल्याणी के चालुक्य नामक राजवंश की नींव रखी।
दोपहर तक राष्ट्रकूटों के इस ऐतिहासिक किले और राजधानी को देखने के बाद मैं वापस बस स्टैंड पहुंचा। बैग लेने से पहले मैंने बस स्टैंड पर बनी कैंटीन से चाय और बिस्किट का नाश्ता किया और दुकान से अपना बैग लेकर कलबुर्गी अथवा गुलबर्गा जाने वाली बस का इंतज़ार करने लगा। कुछ ही समय बाद कलबुर्गी जाने वाली बस आई और मैं गुलबर्गा की ओर बढ़ चला।
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CHITTAPUR RAILWAY STATION |
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CHITTAPUR RAILWAY STATION |
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CHITTAPUR BUS STAND |
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MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
BLACK MOSQUE, MALKHED FORT |
JAIN TEMPLE AT MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
KAGINA RIVAR AT MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
MALKHED FORT |
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SUDHIR UPADHYAY AT MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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ANJANEY TEMPLE AT MALKHED FORT |
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ANJANEY TEMPLE AT MALKHED FORT |
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RUINS OF MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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FORT GATE OF MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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MALKHED FORT |
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POST OFFICE AT MALKHED |
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Thank you so much for your sincere efforts for posting this very short history of Rashtrakuda dynasty and the remines of Malket fort.... We expect more from you Sir... Congratulations....
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