UPADHYAY TRIPS PRESENT'S
कर्नाटक की ऐतिहासिक यात्रा पर भाग - 8
चालुक्यों की वातापि - हमारी बादामी
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TRIP DATE - 3 JAN 2021
समस्त भारतवर्ष पर राज करने वाले गुप्त सम्राटों का युग जब समाप्ति की ओर था और देश पर बाहरी शक्तियाँ अपना प्रभुत्व स्थापित करने में लगी हुईं थी उस समय उत्तर भारत में पुष्यमित्र वंश की स्थापना हुई और भारत वर्ष में गुप्तशासकों के बाद हर्षवर्धन नामक एक योग्य और कुशल शासक उभर कर सामने आया जिसने अपनी बिना इच्छा के राजसिंहासन ग्रहण किया था क्योंकि उसके हाथों की लकीरों में एक महान सम्राट के संकेत जो छिपे थे। उसके सामने परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न हुईं कि ना चाहते हुए भी वह भारत का सम्राट बना और देश को बाहरी शक्तियों के प्रभाव से रोका।
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वहीं दक्षिण भारत में गुप्त सम्राटों द्वारा स्थापित अखंड भारत अब अलग अलग प्रांतों में विभाजित हो गया और यहाँ के शासक एक दूसरे से निरंतर युद्धों में लगे रहते थे। गुप्त काल के दौरान दक्षिण में वाकाटक शासकों का राज्य स्थापित था जिसके पतन के पश्चात दक्षिण में अनेक राजवंशों ने जन्म लिया। इन्हीं में से एक राजवंश था पश्चिमी चालुक्यों का, जिन्होंने एहोल को अपनी राजधानी बनाया और अपना शासन प्रारम्भ किया किन्तु कुछ समय बाद जब उनका साम्राज्य विस्तृत होने लगा तो उन्होंने अपनी नई राजधानी वातापी को चुना। उनकी यह प्राचीन वातापि ही आज आधुनिक बादामी है।
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जैसा कि पिछले भाग में आपने पढ़ा कि मैं बेंगलुरु से शाम को गोलगुम्बज स्पेशल से सुबह छः बजे ही बादामी पहुँच गया था। रेलवे स्टेशन पर सुबह नहा धोकर तैयार हो गया। मुझे यहाँ बादामी के रहने वाले मित्र नागराज मिलने आये और मैं उनके साथ बादामी के बस स्टैंड पहुँचा। उन्होंने मुझे यहाँ से एहोल की बस में बैठा दिया। दोपहर तक मैं एहोल और पत्तदकल घूमकर वापस बादामी आया।
एहोल और पत्तदकल के मंदिर समूह देखने के बाद उतरती दोपहर तक मैं बादामी पहुँच गया। बादामी पहुंचकर मैंने नागराज को कॉल किया तो उन्होंने बताया कि वह किसी आवश्यक कार्य से अभी बादामी से बाहर हैं। उन्होंने मुझे बादामी घुमाने के लिए किसी दोस्त को भेजने के लिए कहा जिसके लिए मैंने उनसे मना कर दिया। अब दोपहर हो चुकी थी, मैं थोड़ा थक भी गया था और मुझे भूख भी लग रही थी। मैंने पैदल पैदल ही बादामी के बाजार को घूमना शुरू कर दिया किन्तु मुझे कोई शुद्ध शाकाहारी भोजनालय हिंदी या अंग्रेजी में लिखा कहीं नहीं दिखा। एक दो जगह मुझे कुछ रेस्टोरेंट से नजर आये भी जिनके बाहर लगे बोर्डों पर बढ़िया खाने की थाली छपी हुई थी, परन्तु लिखा कन्नड़ भाषा में था जो मेरी समझ से परे थी। कुछ देर बाद अंग्रेजी भाषा के जरिये मुझे एक शाकाहारी भोजनालय मिला गया।
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यहाँ आलू और गेँहू के आटे की रोटी का मिलना अत्यंत ही दुर्लभ है या मानिये कि ना के बराबर है। मैं इस शाकाहारी भोजनालय पर गया तो यहाँ भी वही चावल, इडली, डोसा और साँभर। अब पेट भरने के लिए कुछ तो खाना ही था इसलिए अपने पसंदीदा चावल ही लिए और दाल के साथ नहीं, बल्कि साम्भर के साथ। क्योंकि कि यह दक्षिण है यहाँ साम्भर को उतनी ही इज़्ज़त प्राप्त है जितनी उत्तर भारत में दालों को है। साम्भर और चावल खाकर कुछ देर के लिए पेट तो भर गया मगर जो पर्याप्त भूख मुझे लगी थी वह पूरी ना हो सकी क्योंकि पिछले तीन चार दिन से मैं ऐसा ही कुछ खाता आ रहा था। खाना खाकर मैं बादामी की गुफाओं की तरफ बढ़ चला जिनका निर्माण चालुक्य राजाओं ने करवाया था।
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| स्टेशन के बाहर चाय की दुकान |
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| मेरे बादामी के मित्र नागराजा |
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| स्टेशन से बादामी शहर की ओर |
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| बादामी बस स्टैंड |
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LUNCH TIME AT BADAMI
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बाद में चालुक्यों राजवंशों की अनेक शाखाएं बनी किन्तु जो सबसे प्रारम्भिक शाखा थी वह बादामी के चालुक्यों की थी जिन्हें पश्चिमी चालुक्यों के नाम से जाना गया और इनका शासनकाल छटवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक स्थापित रहा। बादामी में अनेक शासकों ने राज किया जिनमें से कुछ शासक भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान रखते हैं इनका विवरण निम्नलिखित है।
वातापि का चालुक्य राजवंश
पुलकेशिन प्रथम ( 535 ई. से 566 ई. )
पुलकेशिन प्रथम ने ही वातापि में दुर्ग का निर्माण कराया और एक अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। अश्वमेघ यज्ञ के अलावा उसने बाजपेय यज्ञ और हिरण्यगर्भ जैसे यज्ञ भी सम्पन्न करवाए थे।इन यज्ञों को संपन्न कराने के पश्चात उसने पृथ्वीवल्लभ की उपाधी धारण की।
कीर्तिवर्मन प्रथम ( 566 ई. से 597 ई.)
कीर्तिवर्मन ने ही सर्वप्रथम बादामी की गुफाओं का निर्माण प्रारम्भ किया।
मंगलेश ( 597 ई. से 610 ई. )
कीर्तिवर्मन प्रथम द्वारा अधोनिर्मित बादामी की गुफा को उसने पूरा करवाया और भगवान विष्णु की मूर्ति का निर्माण कराया।
पुलकेशिन द्वितीय ( 610 ई. से 642 ई. )
पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे महान और शक्तिशाली शासक था। उसे वेदों, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथों का अच्छा ज्ञान प्राप्त था। ऐहोल अभिलेख के अनुसार उसने कदम्बों का शासन पूर्णतः समाप्त कर दिया और कोंकण के मौर्यों की राजधानी धारापुरी ( आधुनिक - एलीफैंटा केव द्वीप ) पर अपनी सेना द्वारा नावों के जरिये आक्रमण किया।
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समुद्र में उसकी नौकाओं की रफ़्तार देखकर समुद्र की लहरें भी काँप उठती थीं, ऐसा लगता था जैसे उसने पृथ्वी के साथ साथ समुद्र पर भी कोई नगर खड़ा कर दिया था। धारानगरी पर अपनी विजय पताका लहराने के बाद अब उसका साम्राज्य सिर्फ पृथ्वी ही नहीं बल्कि समुद्र में स्थित सभी द्वीपों पर स्थापित हो चुका था। पुलकेशिन द्वितीय ने समस्त कोंकण प्रदेश को अपने अधीन कर लिया। पुलकेशिन द्वितीय के साम्राज्य में उसकी प्रजा अत्यंत सुखी थी, प्रान्त में हर ओर उसकी जय जयकार होती थी। प्रजा उसे ईश्वर के रूप में देखती थी। महान शक्तिशाली सम्राट होने के साथ साथ वह ईश्वर का परमभक्त, साहसी, निडर, वीर, दयालु और परोपकारी शासक था।
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उत्तर भारत के शासक हर्षवर्धन की साम्राज्यवादी नीति से वह भलीभाँति परचित था, इसलिए वह उसे रोकने के लिए अपनी विशाल सेना लेकर उत्तर भारत की तरफ रवाना हुआ। नर्मदा नदी के तट पर उसका हर्षवर्धन के साथ युद्ध हुआ, हर्ष को अपनी हाथी सेना पर विशेष गर्व था और यही सेना उसकी अन्य विजयों का प्रमुख कारण रही थी। पुलकेशिन द्वितीय ने सर्वप्रथम हर्षवर्धन की गजसेना का दमन किया और बाद में उसकी अश्व सेना को वापस लौटने पर विवश कर दिया। हर्षवर्धन इस युद्ध में बुरी तरह से पराजित हुआ और उसे बंदी बनाकर पुलकेशिन द्वितीय के समक्ष लाया गया।
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पुलकेशिन एक दूरदर्शी सम्राट था, वह जानता था कि हर्षवर्धन ने अपने शासनकाल में भारतवर्ष से बाहरी शक्तियों का दमन किया था और देश को सुरक्षित रखने हेतु उत्तर भारत में हर्षवर्धन जैसे योग्य और शक्तिशाली शासक की विशेष आवश्यकता थी क्योंकि वह खुद दक्षिण भारत में रहकर उत्तर भारत पर इतना नियंत्रण नहीं रख सकता था। इसलिए उसने हर्षवर्धन को क्षमा कर दिया और एक संधि के तहत भारतवर्ष को दो भागों में बाँट दिया जिनमें उत्तर भारत का राज्य हर्षवर्धन का रहा और दक्षिण भारत का राज्य पुलकेशिन द्वितीय का। नर्मदा नदी दोनों शासकों के साम्राज्य की सीमा रेखा बन गई, इस युद्ध के बाद कभी हर्षवर्धन ने दक्षिण की तरफ अपना रुख नहीं किया।
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पुलकेशिन द्वितीय की इस उदारता से उसके क्षमाशील होने और देश प्रेमी होने का गुण दिखाई देता है। इस युद्ध के बाद पुलकेशिन ने परमेश्वर की उपाधि धारण की। पुलकेशिन द्वितीय ने एहोल में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया और साथ ही रविकीर्ति जैन, जो उसका राजकवि भी था, एहोल में मेगुती जैन मंदिर का निर्माण कराया और पुलकेशिन द्वितीय का हर्षवर्धन पर विजय का उल्लेख एक अभिलेख पर किया। हर्ष पर विजय प्राप्त करने के पश्चात पुलकेशिन की समस्त दक्षिण पर अधिकार करने की तृष्णा बढ़ती गई और यही तृष्णा आगे चलकर उसके लिए घातक सिद्ध हुई। उसने अपने नजदीकी राज्य कांची और वेंगी पर आक्रमण किया जहाँ इस वक़्त पल्लवों का राज्य था।
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महेंद्र सिंह वर्मन यहाँ का शासक था, हालंकि वेंगी पर तो चालुक्यों का अधिकार हो गया किन्तु पल्लवों की राजधानी कांची पर वह अधिकार ना कर सका और पराजित होकर वापस वातापि लौट आया। इसके बाद भी अनेकों बार चालुक्य और पल्लवों का संघर्ष चलता रहा। सन 642 ई. में महेंद्र वर्मन के पुत्र नर्सिह वर्मन ने वातापि पर आक्रमण किया। इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय का भाग्य ने साथ नहीं दिया अतः वह पराजित हुआ और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। पुलकेशिन पर अपनी इस विजय के बाद पल्लव शासक नर्सिह वर्मन ने वातापि पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और वातपिकोंड की उपाधि धारण की।
विक्रमादित्य प्रथम ( 655 ई. से 681 ई. )
655 ई. में पुलकेशिन द्वितीय के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लव शासक नर्सिह वर्मन को हराकर पुनः वातापि को चालुक्यों की वातापि बनाया। विक्रमादित्य प्रथम का तीन पल्लव शासकों के साथ युद्ध हुआ ये तीन शासक क्रमशः नरसिंह वर्मन, महेंद्र वर्मन द्वितीय और परमेश्वर वर्मन थे। अपने पिता और मातृभूमि का बदला लेने के लिए कुछ समय तक विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लवों की राजधानी कांची पर अधिकार करके उसे अपने अधीन रखा।
विनयादित्य ( 681 ई. से 696 ई. )
विक्रमादित्य प्रथम की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र विनयादित्य वातापी का सम्राट बना और इसने ब्रह्मा मंदिर का निर्माण कराया।
विजयादित्य ( 696 ई. से 733 ई. )
विजयादित्य ने एहोल में हच्चीमल्लि शिव मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अलावा पत्तदकल में संगमेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था।
विक्रमादित्य द्वितीय ( 733 ई. से 747 ई. )
विक्रमादित्य द्वितीय अपने दादा विक्रमादित्य प्रथम और परदादा पुलकेशिन द्वितीय की तरह ही श्रेष्ठ और शक्तिशाली शासक था। बचपन से ही पल्लवों के विरुद्ध उसके मन में बदले की भावना थी। वातापि का सिंहासन प्राप्त करने के बाद उसने पल्लवों की राजधानी कांची को तीन बार रौंदा था और अपना आधिपत्य जमाया था। पल्लवों पर विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य द्वितीय ने काँचीकोन्ड की उपाधि धारण की, ठीक वैसे ही जैसे नर्सिंह वर्मन ने पुलकेशिन द्वितीय को मारकर वातपिकोन्ड की उपाधि धारण की थी।
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विक्रमादित्य द्वितीय की दो रानियां थीं लोक महादेवी और त्रैलोक महादेवी। दोनों ही कलचुरी वंश की राजकन्याएँ थीं और आपस में सगी बहनें थीं। लोकमहादेवी ने पत्तदकल में विरुपाक्ष मंदिर का निर्माण करवाया था और त्रैलोक महादेवी ने मल्लिकार्जुन मंदिर का। विक्रमादित्य द्वितीय के शासनकाल में ही अरबों के आक्रमण शुरू हो गए थे जिनका उसके सामंत पुलकेशिन ने दमन कर दिया था।
कीर्तिवर्मन द्वितीय
यह वातापी के चालुक्य वंश का अंतिम शासक था। इसके बाद चालुक्य वंश के इस युग का अंत हो गया और वातापि पर राष्ट्रकूटों का अधिकार स्थापित हो गया।
बादामी के पर्यटन स्थल
बादामी की गुफाएं
बादामी में चट्टानों को काटकर गुफा मंदिर बनाने का श्रेय चालुक्य शासकों को प्राप्त है। उन्होंने यहाँ चार गुफा मंदिरों का निर्माण कराया था जिनमें तीन हिन्दू देवताओं को और बाकी एक जैन धर्म को समर्पित है। कालांतर में यह गुफाएं पुरातत्व विभाग के अधीन हैं और इन्हें देखने के लिए उचित टिकट लेकर प्रवेश करना होता है। गुफा क्रमांक 1 हिन्दू धर्म के देवी देवताओं को समर्पित है जिसमें भगवान शिव की दस भुजी नृत्य करती प्रतिमा नटराज में प्रसिद्ध है। गुफा क्र. 2 में भगवान विष्णु के वराह अवतार का दर्शन होता है इसी क्रम में गुफा क्र. 3 में भगवान विष्णु की शेषनाग पर आसीन मूर्ति के दर्शन होते हैं। गुफा क्र. 4 जैन धर्म को समर्पित है, यहाँ महावीर जैन की मूर्ति के दर्शन होते हैं जो जैन धर्म की दिगंबर शाखा से संबंधित हैं।
गुफा क्रमांक 1
इस गुफा का निर्माण चालुक्य सम्राट पुलकेशिन प्रथम के शासनकाल में 550 ई. के मध्य हुआ था। यह गुफा भगवान शिव के मंदिर के लिए समर्पित है। इस गुफा में एक सर्प की कुन्डलीमार प्रति देखने में बहुत खूबसूरत है।
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| बादामी गुफाओं की तरफ |
| कुन्डलीमार सर्प की एक मूर्ति |
| बादामी गुफा क्रमांक 1 |
| शानदार स्तम्भ संरचना |
| गुफा की गर्भ गुफा |
गुफा क्रमांक 2
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| गुफा क्रमांक २ - बादामी |
| वराह अवतार मूर्ति |
| गुफा के सामने का दृश्य |
गुफा क्रमांक 3
सम्राट कीर्तिवर्मन प्रथम ने इस गुफा का निर्माण प्रारम्भ करवाया था जिसे कीर्तिवर्मन के सौतेले भाई मंगलेश ने पूरा करवाया। यह गुफा भगवान विष्णु की शेषनाग पर आसीन भव्य मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। इसके अलावा इसमें भगवान नर्सिह की खड़ी मुद्रा में मूर्ति भी विशेष दर्शनीय है।
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| बादामी की सबसे बड़ी गुफा क्रमांक 3 |
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| नर्सिंह अवतार |
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| शेषशायी भगवान विष्णु |
प्राकृतिक गुफा
बादामी का गुफ़ा के ऊपर का किला
गुफाओं के ठीक ऊपर पहाड़ी पर बादामी का किला बना हुआ है जो पुरातत्व विभाग द्वारा सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया है। हालांकि मेरा इस किले को देखने का बड़ा मन था परन्तु बंद होने के कारण मैं इस किले तक नहीं जा सका। सुरक्षा कर्मचारी ने बताया गुफाओं के दूसरी तरफ पहाड़ी पर इस किले का दूसरा भाग अब भी खुला है आप वहां जाकर किले को देख सकते हो, ये सुनकर मेरे मन को थोड़ी सी तसल्ली हो गई।
| बादामी का किला |
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| चट्टानों के बीच किले की दीवार |
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| बादामी का किला |
एक मस्जिद
बादामी की गुफाओं के प्रवेश द्वार के समीप एक ऐतिहासिक इस्लामिक ईमारत देखने को मिलती है जो एक मस्जिद है। इसकी संरचना बहुत ही खूबसूरत दिखाई देती है।
श्री दत्तात्रेय मंदिर
बादामी की गुफाओं से पुरातत्व विभाग के संग्रहालय की ओर जाने पर अगस्त लेक के समीप एक प्राचीन मंदिर के दर्शन होते हैं। हालांकि यह मंदिर अभी बंद था। माना जाता है कि यह मंदिर भगवान् श्री दत्तात्रेय को समर्पित है।
अगस्त झील
बादामी की गुफाओं के समीप एक झील स्थित है। यह बादामी की सबसे मुख्य झील है। इसका निर्माण चालुक्य शासकों के द्वारा ही हुआ था और यह मानव निर्मित सबसे बड़ी झील है।
पुरातत्व संग्रहालय
बादामी किले के अंचल में बसा पुरातत्व संग्रहालय, चालुक्य वंश की अनेक कलाओं और संस्कृतियों का परिचय देता है। इसे देखने के लिए पांच रूपये की टिकट लगती है। संग्रहालय में चालुक्य कालीन अनेक मूर्तियों और स्थानों की जानकारी प्राप्त होती है। इस संग्रहालय में लज्जा देवी की मूर्ति विशेष दर्शनीय है।
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बादामी का मुख्य किला
बादामी की दूसरी पहाड़ी पर निर्मित यह किला ही पुलकेशिन प्रथम द्वारा निर्मित किला है। किले में प्रवेश करने के पश्चात् अनेक रहस्य मय रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है। बलुआ पत्थर से निर्मित चट्टानों के बीच अलग ढंग से बनाये गए अनेक रास्ते हैं जो प्राकृतिक रूप से चट्टानों के एक दूसरे से अलग हो जाने के कारण बने हैं। इस किले पर दो शिवालय भी बने हैं जो छोटे और बड़े शिवालय के नाम से जाने जाते हैं। चूँकि बादामी एक प्राचीन काल का शहर है इसलिए इस किले में कोई भी महल नजर नहीं आता है। हां इस किले में कुछ स्तूप नजर अवश्य आते हैं जिनमें से कुछ तो नष्ट हो चुके हैं और कुछ पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित हैं। मंदिरों के अलावा यहाँ एक तोप भी रखी है जिसका मुख बादामी शहर की तरफ है।
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| मुख्य किले का प्रवेश द्वार |
| बादामी का किला |
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भूतनाथ मंदिर
अगस्त झील के किनारे यह शानदार मंदिर स्थित है जो भगवान शिव को समर्पित है। यहाँ बादामी का मुख्य आकर्षण केंद्र है। मंदिर का प्रतिबिम्ब झील के पानी बहुत ही शानदार प्रतीत होता है किन्तु तब जब झील का पानी एक दम शांत हो।
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भूतनाथ मंदिर देखने के पश्चात शाम हो चुकी थी और सूर्यदेव भी ढलने की कगार पर थे। आज मैं बहुत थक चुका था और अब मेरे पैरों में ज्यादा चलने की शक्ति नहीं बची थी। सबसे ज्यादा तो मेरे बांय पैर में दर्द होना शुरू हो चुका था जिसमें कुछ समय पहले चोट लग जाने के कारण प्लास्टर भी चढ़ा था। यह अभी भी सही नहीं हुआ है ज्यादा पैदल चलने पर दर्द होना शुरू हो जाता है। किन्तु फिर भी जब घूमने का जूनून दिल में हैं तो दर्द तो सहना ही पड़ता है वर्ना आप सभी तक के लिए यात्रा के नए स्थल कैसे खोज पाऊंगा।
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मैं बादामी के बस स्टैंड पहुंचा जहाँ सुबह बादामी के मेरे मित्र नागराज मुझे छोड़कर गए थे। मैंने नागराज को फोन लगाया और उन्होंने दस मिनट में मुझसे मिलने आने को कहा। मैं बस स्टैंड के बाहर ही उनका इंतजार कर रहा था। अब बैठने को कोई जगह नहीं मिली तो मैं एक केले बेचने वाली गुड़िया की दूकान के पास उसके केलों की खाली डलिया पर बैठ गया। वह कन्नड़ भाषा में मुझे केले खरीदने को कह रही थी किन्तु मैंने मना कर दिया। उसने दो चार केले मेरी तरफ बढ़ाते हुए खाने को कहा, मेरे मना करने के बाबजूद भी वह नहीं मानी और उसने मुझे वह केले दे दिए। मैंने वह केले ले लिए और खाने लगा। केले खाने के बाद उसने मुझे और केले देने की कोशिश की किन्तु मन ना होने कारण मैंने मना कर दिया। पहले वाले केलों के बदले मैंने उसे कुछ रूपये उसे दे दिए।
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कुछ समय बाद नागराज अपनी बाइक लेकर मेरे पास आये और मुझे लेकर अपने एक मित्र की दूकान पर गए जो रविवार होने के कारण आज बंद थी किन्तु मेरे लिए उन्होंने शाम को दूकान खोली। नागराज के वह मित्र तेल बड़े व्यापारी हैं जिनकी बागलकोट शहर में मिल भी बनी हुई है। कर्नाटक में मूंगफली की पैदावार अत्यधिक होती है इसलिए यहाँ मूंगफली के तेल की भारी मांग है। नागराज के मित्र काफी मिलनसार व्यक्ति हैं उन्होंने मेरा बहुत आदर सत्कार किया और मेरे लिए चाय नाश्ते की उचित व्यवस्था की। काफी देर तक दुकान पर बतलाने के बाद मैं और नागराज वहां से आगे बढ़ चले।
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| नागराज और उनके मित्र |
DINNER TIME AT BADAMI
मुझे काफी तेज भूख लगी थी, हालांकि सुबह के केवल वही चावल और साम्भर खाये थे जिन्हें अब मै दुबारा नहीं खाना चाहता था। नागराज मेरी बेचैनी समझ चुके थे, वह मुझे एक अच्छे होटल पर लेकर गए जहाँ मेरे लिए भोजन केले के पत्ते पर लग कर आया। नागराज ने मुझे यहाँ पहलीबार ज्वार की रोटी खिलवाई जो मुझे अपने यहाँ के गेंहू के आटे से भी ज्यादा स्वादिष्ट लगी। कर्नाटक में ज्वार के खेती अत्यधिक मात्रा में होती है, यहाँ गेंहूँ और बाजरा दूर दूर तक देखने को नहीं मिलता। यहाँ के लोग ज्वार की बनी रोटी को कई हफ्ते और महीने तक खाते हैं। यह कभी दूषित नहीं होती और पापड़ की तरह खाई जाती है।
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| नागराज द्वारा ज्वार की रोटी का भोजन |
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भरपेट भोजन खिलाने के बाद नागराज ने मुझे बादामी के स्टेशन तक छोड़ दिया जो मुख्य शहर से छह किमी दूर स्थित था। चूँकि मैं और नागराज आज पहली बार ही मिले थे किन्तु इस एक दिन की दोस्ती ने ऐसा रिश्ता बना लिया था कि आज एक दूसरे से दूर होने पर दिल रोने लगा था। यात्रा के नियमों के तहत आगे बढ़ना ही होता है और फिर मिलने का वादा करके मैंने नागराज से विदा ली और अपना बैग लेकर मैं रेलवे स्टेशन पहुंचा। आज पूर्णिमा थी, स्टेशन से बादामी में दिखाई देता यह चाँद मुझे पुलकेशिन और बादामी के अतीत की याद दिला रहा था। आज मैं पुलकेशिन के शहर से विदा ले रहा था अर्थात पुलकेशिन से विदा ले रहा था। रात को ग्यारह बजे ट्रेन आई और मैं अपनी अगली मंजिल की तरफ बढ़ चला।
| नागराज सिंह बैहट्टी |
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Am from Bengal. A little slow in Hindi. But enjoyed the essay thoroughly. Visited Badami in October 2019. Mr Upadhyay's article and photos took me back through a nostalgic path. Thanks.
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