Thursday, July 8, 2021

SHRI JAGANNATH PURI

UPADHYAY TRIPS PRESENT'S


मैं, माँ और हमारी जगन्नाथ पुरी की चमत्कारिक यात्रा 


इस यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये। 

पिछले भाग में आपने पढ़ा कि रात को ट्रेन में अचानक माँ की तबियत ख़राब हो गई और वह अपनी सुध बुध खो बैठीं। अपनी सीट को छोड़कर वह अन्य कोचों में चलती जा रही थीं। एक सहयात्री के कहे अनुसार मैं उन्हें देखने अन्य कोचों में गया और भगवान श्री जगन्नाथ जी की कृपा से वह मुझे मिल गईं। वह मुझे मिल तो गईं थीं किन्तु अब वह बिलकुल भी ऐसी नहीं थीं जैसी कि वह कल यात्रा के वक़्त अथवा यात्रा से पूर्व घर पर थीं। वह अपनी सुध खो चुकीं थीं। 

लगभग मुझे भी पहचानना अब उन्हें मुश्किल हो रहा था। वह कहाँ हैं, क्या कर रही हैं, कहाँ जा रही हैं, अब उन्हें कुछ  भी ज्ञात नहीं था। माँ की ऐसी हालत देखकर मैं बहुत डर सा गया था। काफी कोशिशों के बाद मैं उन्हें अपने कोच तक लेकर आ पाया था। इधर ट्रेन खोर्धा रोड स्टेशन छोड़ चुकी थी और अपनी आखिरी मंजिल पुरी की तरफ दौड़ी जा रही थी। 


सुबह तड़के तीन साढ़े तीन बजे के आसपास उत्कल एक्सप्रेस अपने आखिरी गंतव्य पुरी स्टेशन पहुँच चुकी थी। पुरी स्टेशन एक टर्मिनल स्टेशन है। मुंबई और कन्याकुमारी के बाद ऐसा स्टेशन मैंने पुरी का देखा था जिसके प्लेटफार्म के सामने मुख्य स्टेशन यार्ड बना है। सभी सवारियां ट्रेन से उतर चुकी थीं और  एक मेरी माँ थीं जो अब भी ट्रेन से उतरना नहीं चाह रही थीं। मैंने थोड़ी जोरजबरदस्ती करके उन्हें कोच के दरवाजे तक लाया और उतरने के लिए प्रेरित करने लगा, इस बीच गुस्से में वह दरवाजे से प्लेटफार्म पर कूद गईं और गिर पड़ी। अन्य सवारियां उनकी इस हालत को बड़े विस्मय तरीके से देख रही थीं। बड़ी मुश्किल से मैंने उठाकर प्लेटफार्म की बेंच पर बिठाया। मैं अब भी नहीं समझ पा रहा था कि आखिर माँ को हुआ क्या है। 

ट्रेन की समस्त सवारियां स्टेशन से बाहर जा चुकी थीं। सुबह के पांच बजने वाले थे और दिन भी निकासी की ओर था। माँ अब भी प्लेटफॉर्म से नहीं बढ़ रहीं थीं, वह बार बार स्टेशन के यार्ड की तरफ, मतलब विपरीत दिशा में जाने की कोशिश कर रही थीं। प्लेटफार्म पर घूम रहे एक कुली ने उनकी हालत को देखकर मुझे चेताया - ये कौन हैं ? मैंने उससे कहा मेरी माँ हैं। वह मुझसे कहने लगा इन्हें यहाँ छोड़कर मत जाना। मैंने उससे कहा भला कोई अपनी जिंदगी को कहीं छोड़कर जाता है। मेरी माँ मेरा जीवन हैं और इन्हें मैं यहाँ भगवान् जगन्नाथ जी के दर्शन कराने के लिए लाया हूँ, नाकि अपनी माँ को इस पराये प्रदेश में छोड़ने के लिए। 

जब माँ प्लेटफार्म को छोड़कर बिलकुल भी आगे बढ़ना नहीं चाह रहीं थीं तो मैंने भगवान जगन्नाथ जी से मन ही मन प्रार्थना की और उसके कुछ ही समय बाद माँ ने मेरे साथ चलना आरम्भ कर दिया। मैं उन्हें धीरे धीरे स्टेशन के वेटिंग रूम तक ले आया और उन्हें यहाँ बिठाकर उनके लिए चाय कॉफी लेने चल दिया। कॉफी पीने के बाद माँ को मामूली सी राहत महसूस हुई। इसी राहत के चलते मैंने उन्हें वेटिंग रूम नित्यक्रिया और स्नान करने के पश्चात दूसरे कपडे पहनने को दिए। वह एकदम तैयार थीं किन्तु अब भी वह अपने होश में नहीं थीं। यूँ तो मैं यहाँ तीन दिन रुकने का प्रोग्राम बनाकर आया था इसलिए हमारा वापसी का रिजर्वेशन भी तीन दिन बाद का था किन्तु अब माँ की ऐसी हालत को देखते हुए मैंने आज ही वापस लौट जाने का निर्णय लिया। इसलिए तीन दिन बाद वाला रिजर्वेशन कैंसिल कराकर उत्कल एक्सप्रेस की आज की ही टिकट ले ली। 

टिकट लेकर मैं वेटिंग रूम पहुंचा तो देखा माँ सीट पर बैठे बैठे अभी सो रही हैं, मैं उन्हें जगाता तो वह एक सीट से उठकर दूसरी सीट पर बैठ जाती थीं। लगभग दस ग्यारह बजे मैं माँ को लेकर जगन्नाथ जी के दर्शन कराने के लिए ले चला। स्टेशन के बाहर से मैंने एक ऑटो मंदिर तक जाने के लिए हायर किया परन्तु उसने हमें मंदिर से कुछ पहले ही उतार दिया। वहां से एक रिक्शे द्वारा हम मंदिर के प्रांगण तक पहुंचे। यहाँ मैंने माँ को आलू की सब्जी  के साथ इडली का नाश्ता करवाया। इसके बाद अपने जूते और मोबाइल को यहाँ बने सेंटर पर जमा करवाने के बाद हम भगवान् जगन्नाथ जी के मंदिर पहुंचें। 

धूप तेज थी, माँ चलने में असमर्थ हो रहीं थी मगर भगवान जगन्नाथ जी की कृपा से मैं और माँ बड़ी आसानी मंदिर के अंदर प्रवेश कर गए। अंदर पहुंचकर हमें तुरंत मंदिर के एक पंडा ने घेर लिया। माँ की बिगड़ती हुई हालत को देखकर वह हमसे सहानुभूति दिखने लगा और अपनी मीठी मीठी बातों में फंसाकर माँ को एकस्थान पर बिठाकर मुझे मंदिर के अंदर बनी दान रसीद के कार्यालय लेकर पहुंचा और 500 /- रूपये की रसीद कटवाने के लिए कहने लगा। इसके बदले वह हमें बिना लाइन में लगकर दर्शन करा देगा। मैं ठहरा एक बृजवासी, मैं यहाँ भगवान् के जिस स्वरूप के दर्शन करने आया था, उनका जन्म ही मेरे गृहनगर मथुरा में हुआ था। इसलिए मैं कभी भी भगवान के समक्ष VIP सेवा का लाभ नहीं लेता हूँ और यही सिद्धांत मेरी माँ का रहा है। जिसने अपने द्वार पर बुलाया है वह बिना दर्शन दिए नहीं लौटाएगा, ऐसा मेरा और माँ का मानना है। 

मैंने उस पण्डे को उसकी हमारे प्रति उसकी सहानभूति के लिए उसका धन्यवाद दिया और उसे प्रणाम करके उसे स्वयं से अलग किया। इसके बाद मैं माँ को लेकर दर्शन के लिए लगी लाइन की तरफ लेकर गया। यहाँ काफी रेलिंगों के बीच लोगों की लाइनें लगी थीं। इन लोगों को कोरोना का कोई डर नहीं रह गया था, जो लोग मुँह पर मास्क लगाये थे वह भी दो गज की दूरी का पालन नहीं कर पा रहे थे। सभी को सिर्फ भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन करने के लिए जल्दी थी। तभी मैंने देखा कि हमें मिले पण्डे की तरह यहाँ अनेकों पण्डे थे जो हमारे जैसे अन्य दर्शनार्थियों को जल्दी दर्शन का लालच देकर, उनकी रसीद कटवाकर इसी लाइन तक लाकर छोड़ देते थे और इस लाइन के बाद मंदिर में मिलने का वादा करके चले जाते थे। भगवान् के मंदिर में बिना लाइन के दर्शन करने का कोई विकल्प ही नहीं था। 

कुछसमय बाद रेलिंगों में लगी लाइन दिखाई देना बंद हो गई। जानकारी की तो पता चला कि अभी मंदिर के कपाट बंद कर दिए गए हैं। एक घंटे बाद पुनः खुलेंगे। तभी मेरी नजर भगवान् के मंदिर में बनकर आये प्रसाद की ओर गयी, जो लकड़ी की बड़ी बड़ी टोकरियों में, मिटटी से बने बर्तनों में रखा हुआ था। इस प्रसाद के बारे में मान्यता है कि यह मंदिर के रसोईघर में सात बड़े बड़े बर्तनों में रखकर पकाया जाता है। जो सबसे ऊपर का बर्तन होता है उसमें सबसे पहले प्रसाद पकता है और जो सबसे नीचे का बर्तन होता है उसमें सबसे देर से पकता है। इस प्रसाद में पके हुए चावल और खिचड़ी शामिल होते हैं। इस प्रसाद को खाने के लिए मंदिर के सम्मुख एक बड़ा आँगन बना हुआ है, जिसमें अनेकों दुकानदार प्रसाद बेचते हुए नजर आते हैं। पूरे भात की कीमत लगभग 50/- रूपये थी। 

भगवान् को प्रसाद को खाने के लिए मैं माँ को लेकर उस आँगन में लेकर गया और एक पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बिठाकर उनको प्रसाद खिलवाया। माँ इसवक्त भी नींद में खोई खोई सी थीं। अभी कपाट खुलने में समय था इसलिए माँ यहीं  इस आँगन में ही लेट गईं। कुछ समय बाद भगवान के मंदिर के द्वार खुले तो देखा एक बहुत लम्बी लाइन दर्शनों के लिए लग चुकी थी। यह लाइन मंदिर में कितनी लम्बी लगी होगी, यह देखने के लिए मैं भी इसी लाइन में लग गया और बहुत ही जल्द मैं जगन्नाथ भगवान के सम्मुख था। मैं बड़े आनंद के साथ भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन किये और इसके पश्चात मंदिर के आसपास बने अन्य ऐतिहासिक मंदिरों को भी देखा। 

सबकुछ घूमने के बाद अन्ततः मैं माँ के पास गया जहाँ वह लेटी हुईं थीं। माँ को दर्शन करने के लिए जगाकर लाया और अब मैं पुनः माँ के साथ लाइन में लग गया। यह लाइन देखने में जितनी लम्बी और भीड़भरी दिखाई दे रही थी उसके मुताबिक इस लाइन में हमें अत्यधिक देर तक यहाँ लगना नहीं पड़ा और बहुत जल्द हम भगवान जगन्नाथ जी के सम्मुख थे। हालांकि माँ नींद में अवश्य थीं परन्तु उन्हें भी मैंने बड़े आनंद से भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन कराये। भगवान के दर्शन करने के पश्चात हम दूसरे द्वार से मंदिर के बाहर निकले और जहाँ मेरे जूते और मोबाइल जमा थे हम वहीँ पहुंचे। यूँ तो यहाँ मंदिर कमेटी की तरफ से काफी सुविधाएँ उपलब्ध थीं किन्तु व्हीलचेयर अथवा बैठने के लिए किसी भी सीट की कोई सुविधा मुझे यहाँ दिखाई नहीं दी। 

जहाँ हमारे मोबाइल जमा थे, यह एक बहुत बड़ा केंद्र था परन्तु यहाँ भी मैंने भक्तों को सीटों के अभाव में जमीन पर ही बैठे देखा। जूते और मोबाइल लेने के बाद हम मुख्य सड़क पर पहुंचे और यहाँ खड़े एक ऑटो वाले को स्टेशन चलने के लिए तैयार किया। इसी ऑटो वाले की सहायता से मैंने यहाँ बनी दुकानों से प्रसाद, जगन्नाथ भगवान् की तस्वीर भी ले ली। मैं आजतक जिस किसी भी तीर्थ स्थान पर गया हूँ वहां से ये दो आवश्यक चीजें अवश्य खरीदता हूँ। इस प्रकार मेरे अपने घर में अनेकों तीर्थ स्थानों की तस्वीरें आपको देखने को मिलेंगी। कुछ फल भी मैंने माँ के लिए खरीद कर रख लिए और हम स्टेशन के लिए रवाना हो गए। 

अभी शाम के पांच बजे थे, हमारी ट्रेन रात को पौने नौ बजे की है इसलिए मैं माँ को लेकर उसी वेटिंग रूम में गया जिसमें सुबह हम ठहरे थे। मैंने यहाँ माँ की चोटी बनाने की कोशिश की। बाजार से लाये फल मतलब अंगूर भी माँ खिलाये और साथ ही साथ जगन्नाथ जी माँ को सही सलामत घर पहुँचाने की प्रार्थना भी की। आज अपने सहयात्री के रूप में अपनी माँ के होते हुए भी मैं अकेला ही था क्योंकि माँ गुमशुम और किसी अन्य दुनिया में खोई सी हुईं थी। कुछ समय बाद माँ ने भूख लगे होने का मुझे इशारा किया, तो मैं माँ को कुछ समय के लिए यहीं बैठने और सामान के देखभाल करने के लिए कह कर गया। पुरी स्टेशन के सामने एक घर से में बने होटल से दाल और रोटी बनवाने लगा। खाना बनवाकर मैं जब पुनः वेटिंग रूम में पहुंचा, तो मैंने देखा कि माँ वेटिंग रूम में कहीं भी नहीं थीं और मेरा सामान  उधर ऐसे ही पड़ा था। 

सामान को वहीँ रखकर मैं, माँ को देखने प्लेटफार्म पर गया तो मैं माँ को सीट पर बैठे देखकर स्तब्ध रह गया, बाल बिखराये और नींद में खोई हुई माँ अपने आसपास की चीजों को ऐसे निहार रही थीं जैसे इन सबको पहली बार देख रही हों। मैं वेटिंग रूम से सामान लेकर माँ के पास पहुंचा और सामान को ऐसे ही छोड़कर चले आने की वजह से माँ से नाराजगी भी जाहिर करने लगा। माँ मुझसे भी ज्यादा गुस्से में  आ गईं और सीट को छोड़कर जाने लगी और मुझसे दूर दूसरी सीट पर बैठ गईं। मैंने बड़े प्यार से माँ को मनाया और उन्हें खाना खिलवाया। 

अब उत्कल एक्सप्रेस के वह वेंडर भी अपनी ट्रेन की तरफ लौटने लगे थे जो पिछले दो दिनों से ट्रेन में हमारे साथ थे और माँ को पानी व् कोल्ड्रिंक पिलवाते आ रहे थे। इनसे हुई बातचीत से मुझे इस पराये शहर में एकबार पुनः अपनेपन का एहसास हुआ। उन्होंने मुझे बताया कि उत्कल यहीं इसी 7 नंबर प्लेटफार्म पर लगेगी, यहीं से माँ को ट्रेन में बैठा लेना। 

उनकी बात सुनने के पश्चात मैं, माँ को लेकर उसी प्लेटफार्म पर बैठा रहा। रात के आठ बजे के लगभग इस प्लेटफार्म पर उत्कल की बजाय पुरषोत्तम एक्सप्रेस को लगा दिया गया। मैंने जानकारी की तो पता चला उत्कल एक नंबर प्लेटफार्म पर लगी हुई है। मैं माँ को लेकर एक नंबर प्लेटफार्म पर पहुंचा। मेरा रिजर्वेशन ट्रेन के सबसे आखिरी कोच में था जिसमें पार्सल और गार्ड का केबिन भी होता है। दो कूपों के इस कोच में, मैं और माँ बिलकुल अकेले थे। माँ आराम से सीट पर सो गईं और मैंने कोच के दरवाजों को बंद कर दिया। अपने सही समय से ट्रेन पुरी से रवाना  हो चली और हम अपने घरों की तरफ। 

अगली सुबह जब ट्रेन टाटानगर पहुंची तो टीटी महोदय टिकट चेक करने हमारे कोच में आये ,मेरा तो ऑलरेडी रिजर्वेशन था ही और माँ अपने पास पर यात्रा कर रहीं थीं। मेरी टिकट देखने के बाद वह चले गए। अगले स्टेशन चक्रधरपुर से हमारे कोच में और भी सवारियां सवार हो गईं। शाम तक इन सवारियों और हमारे बीच काफी मित्रता सी हो गई। अगली सुबह हमारी जब आँख खुली तो देखा ट्रेन ग्वालियर से निकल चुकी है, माँ अभी सो ही रहीं थीं। चम्बल नदी के पुल से जब ट्रेन गुजरने लगी तो उसकी आवाज सुनकर माँ की आँख भी खुल गईं। अब माँ पूर्ण रूप से अपने होश में थीं और धौलपुर आने पर पूछने लगीं कि अभी हम पुरी नहीं पहुंचे बेटा। 

माँ को होश में देखकर मैं बहुत खुश हुआ और मैंने माँ से कहा अब हम पुरी नहीं अपने घर लौट रहे हैं। इस यात्रा में माँ को केवल अपने बिलासपुर पहुँचने तक ही होश था, उसके बाद क्या हुआ, वह कहाँ रुकी, कहाँ गईं उन्हें कुछ भी याद नहीं था। हां भगवान् की कृपा से उन्हें जगन्नाथ जी के मंदिर का सारा दृश्य याद था। वह प्रसाद, वह आँगन जहाँ वह लेटी, भक्तों की लम्बी लाइन और भगवान् के दर्शन, यह सब माँ को याद रहा। कुछ समय बाद हम मथुरा पहुँच गए। हमें स्टेशन लेने मेरी पत्नी के भाई राम और लखन, और उसकी बहिन चंचल आईं। साथ ही वह मेरी बाइक भी लेकर आये। 

जय श्री जगन्नाथ जी 

 

मथुरा स्टेशन पर मेरी माँ 


पुरी के वेटिंग रूम में मेरी माँ  

जगन्नाथ मंदिर की तरफ जाते हुए 


श्री जगन्नाथ पुरी 




मैं, माँ और जगन्नाथ मंदिर 


पुरी रेलवे स्टेशन 

पुरी स्टेशन के बाहर लहराता तिरंगा 

मैं और पुरी स्टेशन 

पुरी रेलवे स्टेशन 






मथुरा रेलवे स्टेशन पर माँ 


पुरी यात्रा समाप्त 

THANKS FOR VISIT 
🙏

 

1 comment:

  1. बहुत सुंदर यात्रा व्रतांत लिखा ह् आपने , मगर माँ जी की वजह से बस थोड़ी परेशानी जरूर आई आपको

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