दौलताबाद का किला
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5 जनवरी 2020
महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले से वेलूर स्थित एलोरा गुफाएं जाते समय रास्ते में एक शंक्वाकार आकार की पहाड़ी पर एक दुर्ग दिखाई देता है, यह दौलताबाद का किला है जिसे हिन्दू शासनकाल के दौरान देवगिरि के नाम से जाना जाता था। देवगिरि के इतिहास के अनुसार इस किले का निर्माण आठवीँ शताब्दी में यादव कुल के राजा भीमल ने कराया था। 8 वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तक इस दुर्ग पर यादववंशीय शासकों का अधिकार रहा और उसके पश्चात् यह दिल्ली के सुल्तानों के अधीन आ गया। इस मजबूत किले से जुड़ा इतिहास काफी दुःखद और दयनीय है।
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1293 ई. में अलाउद्दीन ख़िलजी ने जब भेलसा ( वर्तमान में विदिशा ) पर जब आक्रमण किया तब उसने पहली बार देवगिरि के वैभवशाली और धन सम्पदा से भरपूर राज्य के बारे में सुना। यहीं से अलाउद्दीन ख़िलजी के मन में देवगिरि पर आक्रमण कर उसकी विशाल धन सम्पदा को लूटने का निश्चय किया। इस समय अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का मात्र के सूबेदार था जिसे उसके चाचा और दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने कड़ा मानिकपुर में नियुक्त किया था।
भेलसा पर आक्रमण करने और इसे लूटने के पश्चात दो वर्ष बाद ही अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान को बिना सूचना दिए देवगिरि की तरफ कूच कर दिया। अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरि पर आक्रमण करने के लिए दो वर्षों तक मजबूत सैन्य तैयारी की और सन 1295 में देवगिरि के अभियान के लिए निकल पड़ा।
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अपने सैन्य पराक्रम के बल पर उसने देवगिरि के राजा रामचंद्र देव को पराजित किया और अपने अधीन शासन करने को मजबूर कर दिया। वह देवगिरि से अपार धन संपत्ति को अपने हाथी घोड़ों पर लादकर सुरक्षित "कड़ा" वापस आ गया। जब सुल्तान जलालुद्दीन को उसकी इस अपार धन संपत्ति के लूट के बारे पता चला तो वह अलाउद्दीन से मिलने कड़ा पहुंचा जहाँ गंगा नदी में नौका विहार करते समय अलाउद्दीन ने उसकी धोखे से हत्या कर दी और स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया।
देवगिरि के सफल अभियान के बाद से ही अलाउद्दीन के मन में सुल्तान बनने की इच्छा जागृत हुई, इस अभियान ने इसके अंदर को हौसलें को बहुत मजबूत कर दिया था। दिल्ली की गद्दी पर आसीन होते ही उसने सबसे पहले
नुसरत खां के नेतृत्व में गुजरात पर आक्रमण किया।
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गुजरात में उनदिनों वाघेला साम्राज्य के अंतिम राजपूत शासक कर्ण वाघेला का राज्य था। कर्ण वाघेला ने खिलजियों से वीरता पूर्वक सामना किया किन्तु तभी सिंध की तरफ से अलाउद्दीन खिजली के सूबेदार उलुगखां ने भी गुजरात पर आक्रमण कर दिया। राजपूत सेना ने खूब डटकर खिलजियों का सामना किया किन्तु अंत में वह परास्त हुए। कर्ण वाघेला की रानी कमलावती, खिलजियों के हाथ आ गई और इधर राजा कर्ण वाघेला अपनी छोटी पुत्री देवलदेवी को लेकर देवगिरि के शासक राजा रामचंद्र देव की शरण में पहुंचे।
गुजरात के आक्रमण के पश्चात विजयी होने के बाद गुजरात के नगरों को जी भरकर लूटा गया, इस लूट में उन्हें गुजरात की रानी कमलावती के अलावा, मालिक काफूर नामक एक हिन्दू दास भी मिला जिसे सुल्तान ने उसकी प्रतिभा के बल पर अपना सेनानायक बनाया और रानी कमलावती से विवाहकर उसे अपनी रानी बनाया।
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राजा रामचन्द्रदेव ने कर्ण वाघेला को देवगिरि के एक ग्राम में आश्रय प्रदान किया और अपने पुत्र शंकरदेव के लिए उसकी पुत्री देवलदेवी से विवाह का प्रस्ताव रखा। हालांकि कर्ण वाघेला एक राजपूत शासक था और रामचंद्र देव एक यादव तो कर्ण वाघेला के मन अलग कुल और जाति को लेकर भ्रम उत्पन्न हुआ किन्तु शरणार्थीं होने के कारण वह इस विवाह हेतु तैयार हो गया।
रानी कमलावती को गुजरात आक्रमण के दस वर्षों के पश्चात अपनी पुत्री की याद सताने लगी तो उसने सुल्तान से अपनी पुत्री से मिलने की इच्छा प्रकट की। इधर देवगिरि के राजा ने सुल्तान को ख़िराज ( वार्षिक कर ) देना भी बंद कर दिया था। अतः सुल्तान ने मालिक काफूर को देवगिरि पर आक्रमण करने और साथ ही देवलदेवी को सुरक्षित दिल्ली पहुंचाने का आदेश दिया।
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मलिक काफूर ने एक विशाल सेना लेकर देवगिरि की तरफ कूच कर दिया। देवगिरि पहुँचने से पहले ही देवलदेवी मालिक काफूर के हाथ पड़ गई और उसने उसे दिल्ली भेज दिया जहाँ उसका विवाह उसकी माता कमलादेवी की सहमति से अलाउद्दीन के पुत्र खिज्रखां से कर दिया गया। मालिक काफूर ने देवगिरि पर आक्रमण किया तो राजा रामचंद्र देव ने आत्म समर्पण कर दिया और दिल्ली आकर सुल्तान को अपार धन भेंट स्वरुप दिया जिससे सुल्तान ने प्रसन्न होकर फिर से उसे देवगिरि का राज्य सौंप दिया।
राजा रामचंद्रदेव की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र शंकरदेव ने देवगिरि का शासन संभाला और स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। वह खिजलियों से सख्त घृणा करता था इसलिए उसने सुल्तान के विरुद्ध युद्ध की तैयारियाँ शुरू कर दी और उसे खिराज देना बंद कर दिया। सन 1313 ई. में सुल्तान ने मलिक काफूर को देवगिरि पर आक्रमण करने हेतु भेजा।
देवगिरि में मलिक काफूर और शंकरदेव के बीच भीषण युद्ध हुआ, शंकरदेव ने आक्रमणकारियों को दुर्ग में प्रवेश करने से रोकने के लिए वीरता पूर्वक सामना किया किन्तु अंत में वह पराजित हुआ और वीरगति को प्राप्त हुआ। शंकरदेव सचमुच एक वीर शासक था जिसने अपने पिता के विपरीत खिलजियों की अधीनता स्वीकार नहीं की और अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
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दिल्ली में खिलजी वंश के बाद तुगलकों का शासनकाल आया जिसमें मुहम्मद बिन तुगलक ने भी दिल्ली के गद्दी पर बैठे के पश्चात दक्षिणी भारत पर राज्य करने का प्रयास किया। उसने सल्तनत की राजधानी दिल्ली से हटाकर देवगिरि स्थानांतरित की और देवगिरि को एक नया नाम दिया - दौलताबाद।
उसका राजधानी स्थानांतरित करने का उसका मुख्य उद्देश्य था कि शासन को सुचारु रूप से चलाने और अपने समस्त साम्राज्य पर नियंत्रण रखने हेतु देवगिरि बिल्कुल मध्य केंद्र था परन्तु दिल्ली की जनता के लिए यहाँ का वातावरण उनके प्रतिकूल था जिस वजह से उसे पुनः अपनी राजधानी दिल्ली स्थानांतरित करनी पड़ी। उसकी यह योजना भारतीय इतिहास में उसकी सबसे बड़ी भूल मानी जाती है।
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दिल्ली सल्तनत के अधीन रहने के बाद यह किला बहमनी साम्राज्य के निजामशाही शासकों के अधीन रहा और उसके पश्चात मुगलों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया। अतः देवगिरि अथवा दौलताबाद के किले ने अनेकों राजवंशों इतिहास देखा और विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का केंद्र रहा।
अलग अलग राजवंशों के अधिकारों के कारण इसमें अनेकों स्मारकों का निर्माण भी हुआ जिनमें सबसे मुख्य चाँद मीनार है जिसका निर्माण बहमनी साम्राज्य की निजाम शासक अहमद शाह द्वितीय बहमनी ने 1447 ई. में करवाया था। इस मीनार की कुल ऊँचाई 70 मीटर है।
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यह किला 200 मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है जिसकी प्राचीरें समतल भाग पर कई किमी लम्बी बनी हुई हैं। अलग अलग कालों में इसकी अलग अलग प्राचीरों का निर्माण हुआ है जिससे इस किले का क्षेत्रफल काफी बढ़ता रहा है। इन प्राचीरों के अवशेष आज भी एलोरा जाते समय रास्ते में दिखाई पड़ते हैं।
मैं पिछलीबार जब माँ के साथ यहाँ आया था तब मैं इसे ऊपर तक जाकर नहीं देख पाया था परन्तु आज मैंने ठान रखा था कि मैं इसबार इसके शीर्ष तक अवश्य जाऊंगा। मेरे सहयात्रियों को इस किले में कोई विशेष रूचि नहीं थी अतः उन्होंने इस किले के शीर्ष तक पहुँचने में मेरा साथ नहीं दिया और किले के आधे भाग को देखकर ही वह लोग वापस चले गए।
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इस किले के शीर्ष तक पहुँचने के लिए बड़ी ही खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जिसे चढ़कर मैं यहाँ बने प्राचीन गणेश मंदिर पहुँचा और गणेश जी को प्रणाम कर आगे चढ़ता ही रहा। अंत में एक समुद्री जहाज की तरह दिखने वाली बारादरी मेरे सामने थी जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण शहंशाह शाहजहाँ ने कराया था। इसका मुख्य शीर्ष यह बारादरी ही है।
देवगिरि का यह किला अनेकों रहस्यमई गुफाओं और भूल भुलैयों से निर्मित है। इस किले के सम्पूर्ण भागों को देखना मेरी नजर से तो मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव है। इस किले को देखने के लिए एक पूरा दिन भी पर्याप्त नहीं है परन्तु अपने लक्ष्य इस बारादरी तक पहुंचकर मैंने जो देवगिरि के आसपास के दृश्यों को देखा उसकी व्याख्या करना कठिन है।
SOURCE BY INDIAN HISTORY
A VIEW OF DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
HISTORY BOARD - DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
CANNON OF DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
A VIEW OF CHAND MINAR - DAULTABAD FORT |
OTHER MINAR AT DAULTABAD FORT |
CHAND MINAR - DAULTABAD FORT |
CHAND MINAR - DAULTABAD FORT |
CHAND MINAR MADE BY AHAMAD SHAH BAHMANI II |
किले की दूसरी प्राचीर |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
HISTORY BOARD - ENTRY GATE FOR FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
GANESH TEMPLE AT DAULTABAD FORT |
SHRI GANESH AT DAULTABAD FORT |
VIEW OF BARADARI AT DAULTABAD FORT |
VIEW OF DAULTABAD |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
CHAND MINAR AT DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
DAULTABAD FORT |
FIRST ENTRY GATE OF DAULTABAD FORT |
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सुधीर जी, आपकी ये सचित्र पोस्ट महत्वपूर्ण जानकारी और आकर्षक चित्रों से भरपूर है। हम अभी जनवरी में औरंगाबाद गये तो एलोरा की गुफ़ाएं, घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और बीबी का मकबरा आदि स्थल देखे पर देवगिरि किले पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। बहुत तेज धूप थी और हम 9 वरिष्ठ नागरिक थे! ;-) पर हमारी यात्रा में ये जो कमी रह गयी थी, उसे आपने अपनी इस पोस्ट से पूरा कर दिया है। आभार।
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार सर,
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