चोल साम्राज्य और उसका अस्तित्व और संगम युग
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चेन्नई में रानी कण्णगी की प्रतिमा |
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प्राचीन काल से ही अखंड भारत भूमि पर अनेकों साम्राज्य स्थापित हुए और इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़कर सदा के लिए विलीन हो गए। इन अलग अलग साम्राज्यों ने भारत भूमि को अलग अलग द्वीपों और देशों से जोड़कर एक अखंड भारत का निर्माण किया, भारत भूमि की संस्कृति को विश्व के दूसरे भागों में पहुँचाया और साथ ही भारत के वैदिक धर्म का चहुँओर प्रचार प्रसार किया। इन्हीं महत्वकांक्षी साम्राज्यों में से एक दक्षिण भारत का चोल साम्राज्य था, जिसके शासकों ने ना केवल भारत भूमि अपितु विश्व के सबसे बड़े महाद्वीप एशिया के अनेकों देशों को अपने साम्राज्य में मिलाया और वहां अपने देश की संस्कृति और धर्म का प्रसार भी किया।
संगमयुग
प्राचीन काल में चोल साम्राज्य का अस्तित्व उस समय से उजागर होता है जिसकी कोई तिथि अथवा समय इतिहास के पन्नों पर नहीं था, बस अपने द्वारा छोड़े गए साक्ष्यों और उस समय के कवियों द्वारा लिखी गई रचनाओं के आधार पर ही उनके अस्तित्व का बोध होता है, यह काल भारतीय इतिहास में संगमयुग कहलाता है। यहाँ संगम का आशय तमिल कवियों के संघ से है जिनकी रचनाओं से 600 ईसापूर्व में दक्षिण भारत के इतिहास की जानकरी मिलती है। इन कवियों में सर्वप्रथम अगस्त ऋषि हुए जिन्होंने भगवान शिव के डमरू से निकली तानों के जरिये एक नई भाषा तमिल की रचना की और इसे दक्षिण भारत की राष्ट्र भाषा के रूप में पहचान दिलाई। इस प्रकार भारत का दक्षिणी क्षेत्र तमिल प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
तमिल प्रदेश में तीन राज्यों के अस्तित्व का बोध होता है जिनमें सर्वप्रथम पांडय राज्य जिसकी राजधानी आधुनिक मदुरै थी जिसे पूर्व में मदुरा कहा जाता था। दूसरा राज्य चेर था जो दक्षिण के कोंगु प्रदेश तथा केरल के आसपास व्यवस्थित था तथा तीसरा राज्य चोल साम्राज्य था जो कावेरी नदी के किनारे मध्य तमिल क्षेत्र में स्थित था। इन तीनों साम्राज्यों के अलावा सिंहल राज्य जो आधुनिक श्रीलंका है, का भी वर्णन तमिल देशों में किया जाता है क्योंकि तमिल देश के शासकों ने सिंहल को कई बार अपने साम्राज्य का अभिन्न अंग बनाया था और सिंहल के शासकों ने भी तमिल भाषा और तमिल कवियों को अपने राज्य में सर्वोच्च स्थान दिया था।
कवि तिरुवल्लुवर
संगम साहित्य की रचनाओं में कुरल नामक ग्रन्थ अति महत्वपूर्ण है जोकि तमिल कवि तिरुवल्लुवर द्वारा रचित है। इसे तमिल का बाइबिल अथवा पांचवां वेद भी कहते हैं। कवि तिरुवल्लुवर का जन्म तमिल प्रदेश में निम्न जाति में हुआ था और जनश्रुतियों के अनुसार इन्हें ब्रह्मा का अवतार भी माना गया है। यह तमिल के बहुत बड़े विद्वान थे जिन्होंने तमिल साहित्य की अनेकों रचनाएँ लिखीं। तमिल कवि तिरुवल्लुवर के सम्मान में इनकी बहुत ऊँची प्रतिमा का निर्माण कन्याकुमारी के हिन्द महासागर में एक विशाल चट्टान पर कराया गया है।
शिल्पाकादिराम महाकाव्य
संगम युग में कुल 5 महाकाव्य थे जिनमें शिल्पदिकारम एक ऐसा महाकाव्य है जो तमिल की महान सतीत्व स्त्री रानी कन्नगी की कथा पर आधारित है। इस महाकाव्य की रचना इलांगोआदिगल ने की थी जो चेर सम्राट शेनगुट्टवन के भाई थे। इस महाकाव्य का प्रमुख पात्र कोवलन है जो अपनी पत्नी कन्नगी के साथ कावेरीपट्टनम के पुहार में रहता है और साधारण जीवन यापन करता है। कोवलन की पत्नी कन्नगी एक पतिव्रता स्त्री है जो अपने पति का हर सुख दुःख में पूरा सहयोग देती है। कोवलन अपनी पत्नी कन्नगी से बहुत अधिक प्रेम करता है और उसे स्वर्ण की एक जोड़ी पायल लाकर देता है, कन्नगी पायल देखकर बहुत अधिक प्रसन्न होती है।
कावेरीपट्टनम की गणिका या नगरवधू माधवी है जो अत्यंत रूपमती है। कोवलन और उसके धन को देखकर माधवी उसपर मोहित हो जाती है और उसे अपने वश में कर लेती है, कोवलन का सारा धन धीरे धीरे समाप्त होने लगता है और अंत में वह दरिद्र हो जाता है। धन समाप्त होते ही माधवी, कोवलन का त्याग कर देती है और कोवलन अपनी पत्नी कन्नगी के पास लौट आता है, चूँकि कन्नगी एक पतिव्रता स्त्री थी इसलिए वह अपने पति का साथ नहीं छोड़ती और दोनों पति पत्नी श्री रंगम में आते हैं और जैन भिक्षुणी कावुंडी से मिलते हैं और उसके उपदेशों से प्रेरित होकर जैन धर्म अपना लेते हैं। बाद में दोनों पति पत्नी जैन भिक्षुणी का वुंडी के साथ पांडय राज्य की राजधानी मदुरै पहुँचते हैं और यहीं रहकर अपना जीवन यापन करते हैं।
मदुरै में ही का वुंडी भविष्य वाणी करती है कि जल्द ही उनके साथ कुछ बुरी घटना घटने वाली है। चूँकि कोवलन अपना सारा धन पुहार में माधवी पर गँवा चुका था इसलिए अब उसे व्यापार के लिए धन की आवश्यकता थी। कन्नगी ने अपने पति को व्यापार शुरू करने के लिए धन के रूप में अपनी एक जोड़ी पायल में से एक पायल दी जो पुहार में कोवलन ने उसे दी थी। कोवलन पायल लेकर नगर के साहूकार के पास पहुंचा और साहूकार को पायल के बदले धन देने की बात कही। साहूकार उस स्वर्ण पायल को लेकर पांडय शासक नेंडूजेलियन के दरबार में पहुंचा और स्वर्ण पायल को राजा को दिखाया।
पायल को देखते ही राजा ने कोवलन को बंदी बनाने का आदेश दिया और उसे फाँसी की सजा दे दी क्योंकि उसीसमय पांडय राज्य की रानी की एक स्वर्ण पायल चोरी हो गई थी जो हूबहू कोवलन द्वारा दी गई पायल के जैसी थी। जब यह बात कन्नगी को पता चली तो वह अपनी दूसरी पायल लेकर पांडय राजा के दरबार में पहुँची और राजा को अपनी दूसरी पायल दिखाकर अपने पति को निर्दोष साबित किया और राजा को बिना जाँच पड़ताल किये अपने पति को मृत्युदंड देने के अपराध में मदुरै नगर को जलकर भष्म होने का श्राप दिया।
कन्नगी के श्राप के कारण मदुरै नगर जलकर भस्म हो गया और पांडय शासक नेंडूजेलियन ने पश्चाताप में आत्महत्या कर ली। कन्नगी पांडय राज्य से चेर राज्य में पहुंची और यहीं उसे पता चला कि उसका पति कोवलन कोई और नहीं बल्कि चेर सम्राट शेनगुट्टवन ही था जो अपने काल्पनिक नाम के साथ अपने राज्य से दूर साधारण जीवन यापन करता था। यहीं रानी कन्नगी अपने सतीत्व को प्राप्त हुईं और तमिल प्रदेश में पूजनीय हुईं। आज भी यहाँ कन्नगी पूजा का विशेष महत्त्व है।
संगमयुगीन चोल साम्राज्य
कोवलन और कन्नगी द्वारा बसाया गया कावेरीपट्ट्नम का पुहार नगर, चोल साम्राज्य की राजधानी बना और यहाँ एलारा नाम से एक प्रसिद्ध चोल सम्राट हुआ जिसने चेर और पांडय राज्य के बीच एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। एलारा के बाद एलनजेतचेन्नी और उसका पुत्र करिकाल चोल सम्राट बने। शिल्पदिकारम में वर्णित है कि करिकाल ने उत्तर भारत में अवन्ति और मगध को जीतते हुए हिमालय पर्वत तक सैन्य अभियान किया और चोल साम्राज्य का विस्तार किया। उसने एक विशाल नौसेना का गठन किया और सिंहल राज्य को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। इसके बाद चोलों में कोई महत्वपूर्ण शासक नहीं हुए।
चोल साम्राज्य का पुनरुत्थान
आगे चलकर 8 वीं शताब्दी में विजयालय के नेतृत्व में पुनः चोल सत्ता का पुनरुत्थान हुआ, उसने पुडुकोट्टई के समीप नारतामलै में एक शिव मंदिर की स्थापना की और उरैयूर को अपनी राजधानी बनाया। विजयालय के बाद आदित्यप्रथम, परांतक प्रथम और सुन्दर चोल जैसे महान चोल सम्राट हुए, तत्पश्चात चोल वंश में राजराज प्रथम नामक सम्राट हुआ जिसने चारों दिशाओं में अपनी विजय पताका फहराई, मजबूत नौसेना का गठन कर उसने भारत के समीपवर्ती देशों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया और एक महान चोल साम्राज्य की स्थापना की।
इसीकारण राजराज प्रथम को चोल वंश वास्तविक संस्थापक माना जाता है, राजराज प्रथम ने राजधानी उरैयूर से तंजौर स्थापित की। राजराज प्रथम की तरह ही उसका पुत्र राजेंद्र प्रथम भी चोल साम्राज्य का योग्य और कुशल चोल सम्राट हुआ। उसने गंगईकोंड की उपाधि धारण की क्योंकि उसने गंगाजल अभियान के तहत बंगाल विजित किया था और गंगईकोंड चोलपुरम नामक नगर की स्थापना कर वहां अपने पिता की तरह बनवाये गए बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण कराया।
NEXT PART :-
- बृहदेश्वर अथवा राजराजेश्वर मंदिर - तंजावुर
- प्राचीन चोल राजधानी - गंगईकोंड चोलापुरम
- तिरुमायम किला
- विजयालय चोलेश्वरम मंदिर - नारतामलै
- रॉकफोर्ट और त्रिची की एक शाम
- नीलगिरि रेलवे - मेट्टुपलायम से उदगमंडलम
- कोयबम्टूर की एक शाम और चेरान एक्सप्रेस
- महाबलीपुरम स्मारक और शोर मंदिर
- तमिलनाडु एक्सप्रेस - चेन्नई सेंट्रल से आगरा छावनी
LAST PART:-
🙏
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