मैक्लोडगंज की ओर
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हिमाचल परिवहन की एक बस |
जाने वाले यात्री - सुधीर उपाध्याय , कुमार भाटिया , सुभाष चंद गर्ग , मंजू एवं खुशी ।
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मैंने घड़ी में देखा दोपहर के डेढ़ बजे थे, अचानक मन कर गया कि धर्मशाला और मैक्लोडगंज घूम के आया जाय, कौनसा यहाँ रोज रोज आते हैं, मैंने सभी से पुछा पहले तो कोई राजी नहीं हुआ, मैंने प्लान कैंसिल कर दिया, बाद में कुमार और मंजू का मन आ गया, अनके साथ बाबा और ख़ुशी भी राजी हो गए। सो चल दिए आज एक नई यात्रा पर काँगड़ा से धर्मशाला। धर्मशाला, काँगड़ा से करीब अठारह किमी है ऊपर पहाड़ो में और उससे भी आगे चार किमी ऊपर है मैक्लोडगंज।
मंदिर से पैदल चलकर हम काँगड़ा के बस स्टैंड पहुंचे, यह मंदिर से करीब तीन किमी दूर है। यहाँ मैक्लोडगंज की बस चलने के लिए तैयार खड़ी हुई थी, मैंने बस का किराया कंडक्टर से पुछा तो उसने बताया तीस रुपये। सभी सहमत थे इसलिए चल दिए काँगड़ा से ऊपर ऊँचे पहाड़ों में, मैक्लोडगंज की सही जानकारी और स्थान के बारे में मुझे प्रसिद्ध ब्लॉगर नीरज जाटजी के ब्लॉग से पता चली जो इससे भी आगे की यात्रा करेरी झील तक पैदल ही करके आ चुके हैं, खैर वो तो राष्ट्रीय घुमक्कड़ हैं, उनसे हिमाचल या हिमालय की शायद ही कोई जगह बची हो जो उन्होंने न देखी हो, इस यात्रा मैं मुझे उनकी बड़ी याद आ रही थी,पर इस वक़्त वो अपनी नई यात्रा मनाली से लद्दाख साइकिल यात्रा पर गए हुए थे ।
यहाँ मुझे कोका कोला का सर्वाधिक प्रचार देखने को मिला, जहाँ भी देखो कोका कोला के बोर्ड ही दिखाई दे रहे थे। मैं कोकाकोला में नौकरी कर चुका हूँ इसलिए शायद ये मुझे यह कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। बस ऊंचाई पर चढ़ रही थी, घुमावदार सड़कों को पार करती हुई बस धर्मशाला पहुंची और यहाँ के बस स्टैंड पर कुछ समय बिता कर चल दी आगे मैक्लोडगंज की ओर।
करीब एक घंटे के बाद बस बहुत ऊँचे पहाड़ों में पहुँच गई थी, इस स्थान का नाम मैक्लोडगंज है, यहाँ काफी ठंडा मौसम था, और यहाँ से बहुत ही मनोरंजक दृश्य था काँगड़ा घाटी का। बस यहाँ से आगे नड्डी तक जा रही थी, बस वाले ने हमें बताया की आधे घंटे बाद यही बस यहाँ वापस आएगी और काँगड़ा जायेगी, और साथ में यह भी कह गया कि यही आखिरी बस है काँगड़ा जाने वाली, इसके बाद काँगड़ा की कोई बस नहीं है । मैंने घडी में देखा तो चार बीस हो रहे थे, यानी पांच बजे तक हमें यहाँ होना चाहिए।
यहाँ भागसूनाग का बहुत बड़ा मंदिर है और उसी मंदिर से दो किमी है भागसू झरना। बस स्टैंड से भागसू का मंदिर करीब दो किमी था, लेकिन था ऊंचाई पर, यानी चढ़ाई का रास्ता था, हमने ऑटो वाले से चलने के लिए कहा तो उसने किराया बताया 80 रुपये प्रति सवारी, हमारे हिसाब से यह अत्यधिक था सो हमने पैदल ही दौड़ लगा दी मंदिर की ओर, पर घडी को देखते हुए हमारे कदम मैक्लोड़गंज के बाजारों में ही थम गए, यहाँ हमें ऐसा अनुभव होने लगा कि जैसे हम किसी विदेश में आ गए हैं, यहाँ के बाजार, यहाँ के लोग सब तिब्बती थे, नीरज जाट जी ने अपने ब्लॉग में इसका विवरण भी दिया है कि यह लोग आपातकाल के समय हिंदुस्तान में आकर बस गए थे, भारत ने मुसीबत के वक़्त इनको शरण दी थी इसलिए यह भारत का शुक्रगुजार भी मानते हैं, और यहीं रहते हैं।
यहाँ एक दलाई लामा का मंदिर भी है जो तिब्बतियों के धर्मगुरु भी हैं, मगर समय के अभाव के कारण हम वहां भी नहीं जा पाए। कुमार को यह स्थान बहुत पसंद आया, वह यहाँ रूकना चाहता था, पर हमारे साथ आये सेठ सुभाष चंद जी को यह गंवारा नहीं था, उन्हें अपनी श्रीमती की बड़ी याद आ रही थी या यूँ कहिये को वो बिना श्रीमती जी के यह स्थान घूमना नहीं चाहते थे। हमने बड़ी गलती की, हमें बिरमा देवी जी को साथ लाना चाहिए था ।
और हम उसी बस को पकड़कर वापस काँगड़ा की तरफ रवाना हो गए ।
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धर्मशाला बस स्टैंड पर खड़ी बसें |
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मैक्लोडगंज |
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मैक्लोड गंज की एक कलाकृति
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मैक्लोड गंज का बाजार |
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कुमार भाटिया |
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मैक्लोडगंज में सेठ सुभाष चंद गर्ग |
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मंजू और ख़ुशी |
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त्रिमूर्ति मैक्लोडगंज में |
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घुमावदार रास्ते |
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धर्मशाला का बाजार |
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प्रेम नगर |
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इसी बस से गए थे हम मैक्लोड गंज ,अब वापस भी इसी से |
यात्रा का अगला भाग - काँगड़ा फोर्ट
काँगड़ा यात्रा 2013 के अन्य भाग :-THANKS YOUR VISIT
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