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माँ ज्वालादेवी शक्तिपीठ धाम
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टेड़ा मंदिर से लौटकर मैं पहले होटल पहुंचा और कुछ देर आराम करने के बाद नहा धोकर माँ ज्वालादेवी के दर्शन के लिए चल पड़ा, ज्वाला देवी का मंदिर काफी बड़ा और साफ़ स्वच्छ बना हुआ है, शाम के समय यह और भी रमणीक हो जाता है, हम शाम के समय मंदिर में पहुंचे, और थोड़ी देर मंदिर के सामने खुले फर्श पर बैठे रहे मंदिर खुलने में अभी समय था, फिर भी भक्तों की कोई कमी नहीं थी, लाइन लगाकर खड़े हुए थे, जब मंदिर खुला तो हम सबने देवी माँ के दर्शन किये, दर्शन करने के बाद एक हॉल पड़ता है जिसमे अकबर द्वारा चढ़ाया हुआ सोने का छत्र रखा हुआ है।
यहाँ माता की कोई मूर्ति नहीं है बस पहाड़ के तलहटी में से ज्योति निरंतर निकलती रहती है, इस ज्योति को माँ ज्वाला देवी का रूप मानकर उनकी पूजा की जाती है। कहा जाता है 500 वर्ष पहले यह ज्योति इतनी विशाल थी की इसका प्रकाश दिल्ली तक दिखाई देता था। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब प्रकाश का कारण जानना चाहा तो माँ के भक्तों ने इसे माँ ज्वालादेवी की महिमा बताया। अकबर इस सत्य को खुद आजमाकर स्वीकार करना चाहता था। माँ के एक भक्त जिनका नाम ध्यानू भगत था के घोड़े का सर काटकर अकबर ने कहा कि अगर यह अग्नि वास्तव में तुम्हारी देवी माँ है और इनमे खुदा के बराबर शक्ति है तो अपनी माँ से कहो इस घोड़े को पुनर्जीवित कर दे।
ध्यानू भगत ने माँ का ध्यान किया किन्तु घोडा पुनः जीवित नहीं हुआ। अकबर सहित समस्त सेनापति और सेना ध्यानू भगत का उपहास करने लगे। इसपर माँ को संतुष्ट होता ना देख ध्यानु भगत ने अपना शीश काटकर माँ के चरणों में अर्पित कर दिया। भक्त की ऐसी भक्ति को देखकर माँ प्रसन्न हो गई और उन्होंने घोड़े सहित ध्यानु भगत का शीश ज्यों का त्यों जोड़ दिया। अकबर और उसके समस्त सेनानायक माँ की इस महिमा को देखकर भौंचक्के रह गए। सम्राट अकबर का अभिमान चूर हो गया था वो माँ के दर्शन के लिए व्याकुल सा होने लगा किन्तु माँ ने उसे दर्शन नहीं दिए।
अकबर सवा मन का सोने का छत्र लेकर दिल्ली से नंगे पैर इस ज्वालामुखी पर्वत तक आया और माँ के लिए ये छत्र भेंट किया किन्तु माँ को उस अभिमानी राजा की ये भेंट पसंद नहीं आई और उन्होंने इसे किसी अन्य धातु में तब्दील करके दूर फेंक दिया। अकबर ने जब उस छत्र को देखा तो उसकी सभा में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो इस सोने के छत्र के बदले हुए धातु का नाम भी बता सकता। आज भी यह छत्र मंदिर के पास एक बड़े हॉल में सुरक्षित रखा हुआ है।
माँ ज्वालादेवी के दर्शन करने के बाद गोरखनाथ जी की डिब्बी की ओर जाते हैं, यह ज्वालादेवी के मंदिर के ठीक ऊपर बना हुआ है, यहाँ एक कुण्ड में पानी उबलता हुआ दिखाई देता है, हाथ से छूकर देखने पर यह बिलकुल ठंडा महसूस होता है। इसकी कहानी भी बड़ी विचित्र है, गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों सहित जब इस पर्वत पर आये यो माँ ज्वालादेवी ने उनका आदर सत्कार किया और उन्हें यहाँ रुकने का वचन लिया। गुरु गोरखनाथ कभी एक स्थान पर ठहरने वाले नहीं थे और माँ की आज्ञा को ठुकरा भी नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने एक युक्ति सोची उन्होंने माँ से कहा, हम कई दिन से भूखे हैं आप हमें आज भात का भोजन करा दीजिये।
आप भात बनाकर रखिये तबतक हम ध्यान करके आते हैं जैसे ही भात पक जाएँ आप हमें आवाज लगा देना। ऐसा कहकर गुरु गोरखनाथ जी वहां से चल दिए। इधर माँ ने भात पकने के रख दिए परन्तु वो भात नहीं पके क्योंकि जिस जल में माँ ने वो भात पकाये वो देखने में बहुत ही गर्म और उबला हुआ प्रतीत होता था परन्तु हाथ लगाने पर वह ठंडा ही था। यह सब गुरु गोरखनाथ ही का ही चमत्कार था वो जिस स्थान से एक बार चले जातें हैं वहां कभी वापस नहीं लौटते। माँ आज भी इस जल के गर्म होने की प्रतीक्षा कर रही हैं परन्तु यह जल देखने में उबलता हुआ जरूर लगता है किन्तु हाथ लगाने पर यह ठंडा ही है। जय बाबा गोरखनाथ
ज्वालादेवी जी भी बहुत बड़ा बाजार है, जहाँ खाने पीने के साथ साथ पूजा सामग्री की भी कई वस्तुएं विभिन्न दामों में मिल जाती है, मदिर के रास्ते के ठीक सामने बस स्टैंड है, जहाँ से हमें अब चिन्तपुरनी के लिए बस पकडनी है।
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ज्वालादेवी मंदिर का एक दृश्य |
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ज्वालादेवी मंदिर की ओर |
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अकबर द्वारा चढ़ाया गया छत्र |
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जय माता दी |
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ज्वालादेवी के मंदिर से दिखाई देता तारारानी का मंदिर |
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शाम के वक़्त ज्वालादेवी मंदिर का एक दृश्य |
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गोरखनाथ की डिब्बी |
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मंदिर के प्रांगण में |
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योगगुरु गोरखनाथ जी |
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काँगड़ा यात्रा 2013 के अन्य भाग :-THANKS YOUR VISIT
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