Monday, April 2, 2012

कुम्भलगढ़ और परशुराम महादेव

UPADHYAY TRIPS PRESENT'S



कुम्भलगढ़ और परशुराम महादेव  




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     कल हम हल्दीघाटी घूमकर आये थे, आज हमारा विचार कुम्भलगढ़ जाने की ओर था और ख़ुशी की बात ये थी कि आज धर्मेन्द्र भाई भी हमारे साथ थे। राजनगर से कुम्भलगढ़ करीब पैंतालीस किमी दूर है, भैया ने मेरे लिए एक बाइक का इंतजाम कर दिया।  भैया, भाभी अपने बच्चों के साथ अपनी बाइक पर, जीतू अपनी पत्नी - बच्चों और दिलीप के साथ अपनी बाइक पर और तीसरी बाइक पर मैं और कल्पना थे। 

    पहाड़ी रास्तो से होकर हम कुम्भलगढ़ की तरफ बढ़ते जा रहे थे, मौसम भी काफी सुहावना सा हो गया था , जंगल और ऊँचे नीचे पहाड़ों के इस सफ़र का अलग ही आनंद आ रहा था, मैं बाइक चला रहा था और कल्पना मोबाइल से विडियो बना रही थी। यहाँ काफी दूर तक बाइक बिना पेट्रोल के ही चल रही थी, ढ़लान के रास्तों पर जो करीब तीन किमी लम्बे होते थे ।


     रास्ते में कई राजस्थानी गाँव भी हमें देखने को मिले, वाकई एक अलग अलग ही अनुभव था मेरे इस मेवाड़ के सफ़र का। थोड़ी देर में हम केलवाड़ा पहुँच गए, यहाँ से एक रास्ता परशुराम महादेव की ओर जाता है और दूसरा कुम्भलगढ़ की ओर, हम पहले परशुराम महादेव की तरफ गए ।

आज तक मैंने पहाड़ों में जितने देवताओं के दर्शन किये थे, उन सब के लिए मुझे पहाड़ पर चढ़ कर ही जाना पड़ता था। आज मैं एक ऐसी जगह दर्शन करने आया जहाँ पहाड़ तो थे पर मंदिर पहाड़ के नीचे था, मतलब हमारी बाइक पहाड़ पर थी और हमें दर्शन करने के लिए करीब चार किमी नीचे जाना था।

     जहाँ हमने बाइक खड़ी की थीं वहीँ खाना भी खाया। सुगंधा ( जीतू की पत्नी ) पूड़ियाँ बनाकर लाई थी, हम काफी ऊँचे पहाड़ पर खड़े थे जहाँ से पाली शहर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था । ये अरावली पर्वत की विशाल श्रृंखला थी जो मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा को अलग करती है। राजसमंद में जहाँ हर तरफ पहाड़ ही पहाड़ थे वहीँ यहाँ से स्पष्ट दिखाई दे रहा पाली का मैदान। 

   मतलब अभी हम राजसमन्द जिले की आखिरी सीमा पर खड़े थे, परशुराम महादेव का मंदिर हमारे ठीक नीचे पाली जिले की सीमा में आता है, राजसमन्द जिले की सीमा वहां तक है जहाँ अरावली की पहाड़ियां ख़त्म हो जाती है, जैसे कि यहाँ और ऐसे ही गोरम घाट तक। 

     हम पहाड़ से नीचे उतरे, सामने एक प्राकृतिक गुफा थी जिसमे बैठकर परशुराम जी ने महादेव की तपस्या की थी और महादेव ने प्रसन्न होकर उन्हें इसी गुफा में साक्षात् दर्शन दिए थे। यहाँ लंगूरों की भरमार है, पूरे रास्ते हमें लंगूर ही देखने को मिले और कुछ पर्यटक भी थे जो यहाँ दर्शन के लिए ही आये थे, रास्तों को देखकर मुझे नीलकंठ की याद आ गई कि एक बार मैं ऐसे ही रास्तों से माँ के साथ नीलकंठ से भी उतरकर आया था। 
    
    पहाड़ से नीचे उतरते वक़्त कल्पना का पैर फिसल गया था जिससे उसे थोड़ी बहुत खरांचे भी आ गई, ज्यादा आगे आगे भाग रही थी, गिरी बेचारी मुँह के बल। उसके मुख्य गिरने का कारण थी उसकी चप्पलें थीं जिन्हें हम वहीँ एक सीट के नीचे सूखे पत्तों से ढँक कर चले गए और वापस आकर वह हमें वहीँ मिली।  

   परशुराम महादेव के दर्शन करने के पश्चात हम अपनी अपनी बाइक उठाकर कुम्भलगढ़ की ओर रवाना हुए, कुम्भलगढ़ की पहली झलक ने ही मेरा दिल मोह लिया, मैंने ऐसा किला पहली बार देखा था जो घने जंगलों के बीच एक पहाड़ी पर स्थित था, दूर से देखने पर आज भी कुम्भलगढ़ ऐसा लगता है जैसे आज भी यहाँ राजा महाराजाओं का दौर हो। राजपूत सेना जगह जगह पर तैनात हो, पर अब ऐसा कुछ नहीं था, अब सबकुछ बदल चुका था, अब यह किला वीराने में अकेला खड़ा था, अब न यहाँ हाथी घोड़े थे नाही राजपूती सेना। गर कुछ था तो सिर्फ इस किले का इतिहास जिसने देश के वीरों को देश के लिए लड़ते हुए देखा था और भारत के  वीर योद्धा महाराणा प्रताप को, जिन्होंने इसी किले में जन्म लिया। शाम हो चली थी, दिन ढलने में अब ज्यादा देर नहीं थी , कुम्भलगढ़ किला देख तो लिया पर इसे घूमने के लिए कम से कम पूरा दिन चाहिए था, जो हमारे पास नहीं बचा था । 

     भैया ने यहाँ सभी को कुम्भलगढ़ का इतिहास बताया, मैं पहले से ही जानता था कि यह किला मेवाड़ के राणा कुम्भा ने बनबाया था और इसी किले में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। दिन ढलता ही जा रहा था और हम अभी कुम्भलगढ़ में ही थे, हमने बिना देर किये अपनी बाइक स्टार्ट कीं और चल दिए वापस राजनगर की ओर।  रास्ते में एक जगह भैया ने बाइक रोकी, भैया को यूँ अचानक रुकते देख मैंने अपने चारों तरफ नजर दौड़ाई, देखा तो खेतों और जंगलों के सिवाय यहाँ कुछ नहीं था। भैया पास ही के एक खेत में गए, यहाँ जलचक्की से खेतों की सिंचाई हो रही थी, यह नजारा भी देखने लायक था, भैया ने यहाँ पानी पिया और साथ में हम सभी ने ।










         




































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