UPADHYAY TRIPS PRESENT'S
नगरकोट धाम वर्ष २०१८
KANGRA TEMPLE |
इस बार काँगड़ा जाने की एक अलग ही ख़ुशी दिल में महसूस हो रही थी, इसका मुख्य कारण था करीब पांच साल बाद अपनी कुलदेवी माता बज्रेश्वरी के दर्शन करना और साथ ही अपनी पत्नी कल्पना को पहली बार नगरकोट ले जाना। यह सपना तो पहले भी पूरा हो सकता था परन्तु वो कहते है न जिसका बुलाबा जब भवन से आता है तभी वो माता के दर्शन का सुख पाता है। इसबार माँ ने मुझे भी बुलाया था और कल्पना को भी साथ इस यात्रा में मेरी माँ मुख्य यात्री रहीं। अन्य यात्रियों में मेरे बड़े मामाजी रामखिलाड़ी शर्मा उनकी पत्नी रूपवती शर्मा, मेरे एक और मामा किशोर भारद्धाज उनकी पत्नी रितु एवं उनके बच्चे गौरव और यतेंद्र। इनके अलावा मेरी बुआजी कमलेश रावत और मेरा दोस्त कुमार भाटिया अपने बेटे क्रियांश और अपनी पत्नी हिना भाटिया और उसके साले साहब कपिल वासवानी अपनी पत्नी रीत वासवानी के साथ थे।
मैंने अपने साथ साथ अपने दोनों मामा और मामी की टिकट भी इंटरनेट के जरिये वेटिंग में आरक्षित की हुई थी जो यात्रा के दिन तक कन्फर्म नहीं हो पाई और कैंसिल हो गई। यह काफी चिंताजनक स्थिति हमारे सामने बन चुकी थी। हज़ारों ख्याल दिल में आने लगे कि अब क्या होगा, पता नहीं जनरल कोच में जगह मिलेगी भी या नहीं, क्या कहीं रात भर बैठे बैठे ही सफर तो नहीं करना पड़ेगा। वहीँ माँ, कल्पना और बुआजी की टिकट कन्फर्म थी। कुमार भाटिया और उसकी फॅमिली का रिजर्वेशन एसी 2 टायर कोच में कन्फर्म था। मामाजी को मिलकर जब मैंने यह बताया की आपकी और मेरी सभी टिकटें कैंसिल हो चुकी हैं, तो उनके चेहरे का गुस्सा देखने लायक था। परन्तु जब कोटा उधमपुर एक्सप्रेस अपने सही समय से आधे घंटे देरी से आई तो उन्होंने जनरल कोच में आराम से खाली पड़ी सीटों पर अपना स्थान जमा लिया और संतुष्टि के साथ मुझे फोन करके कहा कि हमें तो जगह मिल गई है और हम आराम से बैठे हैं। मैंने पहले ही जनरल कोच की टिकटें कुमार के जरिये मंगवा ली थीं।
सफर शुरू हो चुका था, नई उम्मीदों के साथ मैं काफी सालों बाद हिमाचल की तरफ बढ़ रहा था। नईदिल्ली से निकलने के बाद ट्रेन काफी देर सदर बाजार स्टेशन पर खड़ी रही। जब वहां से चली तब जाकर कहीं मुझे नींद आई और ये सोचकर सो गया की अब तो पठानकोट पर ही जागना है। परन्तु ट्रेन के लेट चलने के कारण मेरी नींद फगवाड़ा स्टेशन पर ही खुल गई और आगे का सफर सभी के साथ मिलजुल कर किया। यह ट्रेन पठानकोट कैंट पर सुबह आठ बीस पर पहुंचती है इसके बाद हमें दस बजे चलने वाली नैरो गेज की ट्रेन से काँगड़ा की ओर सफर तय करना था परन्तु इसी ट्रेन के लेट चलने के कारण हम सुबह साढ़े नौ बजे पठानकोट कैंट स्टेशन पहुंचे और दो ऑटो किराये पर करके पठानकोट जंक्शन छोटी लाइन पर पहुंचे।
हमारे पहुंचते ही ट्रेन चल चुकी थी, सभी अलग अलग डिब्बों में चलती ट्रेन में सवार हो चुके थे मैंने बाहर झांक कर देखा कहीं कोई रह तो नहीं गया तो पता चला कुमार बैग लेकर बाहर ही खड़ा है, उसका सामन अत्यधिक भरी होने के कारण वो पूरा सामान ट्रेन में नहीं रख सका, मजबूरन मुझे उतरना पड़ा और इस ट्रेन का सफर छोड़ना पड़ा।
हमारे पहुंचते ही ट्रेन चल चुकी थी, सभी अलग अलग डिब्बों में चलती ट्रेन में सवार हो चुके थे मैंने बाहर झांक कर देखा कहीं कोई रह तो नहीं गया तो पता चला कुमार बैग लेकर बाहर ही खड़ा है, उसका सामन अत्यधिक भरी होने के कारण वो पूरा सामान ट्रेन में नहीं रख सका, मजबूरन मुझे उतरना पड़ा और इस ट्रेन का सफर छोड़ना पड़ा।
मैं अपने साथ लाये हुए किसी भी सहयात्री को इस सफर में अकेला नहीं छोड़ सकता था। कुमार मुझे आते देख खुश हो गया और ट्रेन में न चढ़ पाने के लिए खेद प्रकट करने लगा। कुमार के साथ में रीत भी हमारे साथ थी। हम तीनो वापस ऑटो से बस स्टैंड पहुंचे और काँगड़ा जाने वाली बस का इंतज़ार करने लगे। इधर कुमार की पत्नी और रीत के हस्बैंड ट्रेन में थे उन्हें फुंकारके डलहौज़ी स्टेशन पर उतरने के लिए बोल दिया। कुछ देर बाद धर्मशाला जाने वाली हिमाचल की एक बस आई और हम कांगड़ा की तरफ रवाना हो चले। बस द्वारा काँगड़ा जाने का यह मेरा पहला मौका था, डलहौज़ी स्त्तिव के बार कुमार की वाइफ और कपिल भी हमें मिल गए और बस नूरपुर होते हुए कोटला फोर्ट होते हुए एक ढ़ाबे पर जाकर रुकी यहाँ हमने दोपहर का भोजन किया, इस ढाबे का नाम मुझे याद नहीं रहा परन्तु पठानकोट से काँगड़ा या धर्मशाला की तरफ जाने वाली हर सरकारी बस यहाँ स्टॉप लेती है। इस ढाबे का खाना काफी शानदार और स्वादिष्ट था, और उचित मूल्य पर था 60 /- थाली प्रति व्यक्ति।
थोड़ी देर रूकने के बाद हम यहाँ से आगे रवाना हो चले। हालाँकि यह बस धर्मशाला जा रही थी इसलिए हमे मटौर में ही इस बस को छोड़ना पड़ा और एक लोकल बस द्वारा हम कांगड़ा पहुंचे। बस स्टैंड से एक ऑटो हमने यात्री सदन के लिए किया परन्तु यात्री सदन में उचित कमरा न मिल पाने के कारण वापस मंदिर की तरफ रवाना हो लिए, मंदिर के पास ही बने गेस्ट हाउस में कमरा लेकर हम नहा धोकर तैयार हो गए तबतक हमारे ट्रेन से आने वाले बाकी के यात्री भी आ चुके थे।
शाम के समय मातारानी के दिव्य दर्शन कर हम काफी देर नगरकोट मंदिर के प्रांगण में रुके और वहीँ प्रतिदिन चलने वाले लंगर में खाना खाकर अपने रूम पर वापस आकर सो गए। इस मंदिर के प्रांगण में समय बिताते हुए अनायास ही मुझे एहसास हुआ वाकई यह जगह कितनी शांत और आनंदप्रिय है, ऐसा लगता ही नहीं है कि हम कहीं बाहर आये हुए हैं यहाँ आकर हर इंसान को यही अनुभव होता है जैसे वो अपने घर में है जबकी हम अपने घर से हज़ारों मील दूर थे।
शाम के समय मातारानी के दिव्य दर्शन कर हम काफी देर नगरकोट मंदिर के प्रांगण में रुके और वहीँ प्रतिदिन चलने वाले लंगर में खाना खाकर अपने रूम पर वापस आकर सो गए। इस मंदिर के प्रांगण में समय बिताते हुए अनायास ही मुझे एहसास हुआ वाकई यह जगह कितनी शांत और आनंदप्रिय है, ऐसा लगता ही नहीं है कि हम कहीं बाहर आये हुए हैं यहाँ आकर हर इंसान को यही अनुभव होता है जैसे वो अपने घर में है जबकी हम अपने घर से हज़ारों मील दूर थे।
सुबह हो चुकी थी, और जल्द ही सुबह उठकर मैंने माता के दरवाजे पर जाकर उनको प्रणाम किया, यही पास में जमुनामाई जी की गद्दी है जहाँ हमारे पूर्वजों की यात्राओं का लेखा जोखा रहता है, इसबार भी मेरी यात्रा का लेखा जोखा उनके पोथी पत्रों में नोट हो चुका था। कहते हैं श्री ब्रजेश्वरी देवी सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश की कुलदेवी हैं और उनके भक्त यहाँ ऐसे ही खिंचे चले आते हैं जैसे चुम्बक से लोहा खिंचा चला आता है। मैं पिछली बार जब यहाँ आया था तो अच्छरा माता का मंदिर भी देखा था, तब मैंने मन ही मन सोचा था कि जब कल्पना को लेकर यहाँ आऊंगा तो अच्छरा माता के दर्शन के जरूर करूँगा। बस यही सोचकर कल्पना को बुलाया और बाणगंगा नदी के पास स्थित अच्छरा देवी के दर्शन को निकल पड़ा।
काँगड़ा की गलियों में से होकर हम रास्ता भटक गए एक मुस्लिम सम्प्रदाय के व्यक्ति ने हमारा आगे का मार्गदर्शन किया और हमें एक ऐसे स्थान पर पहुंचा दिया जहाँ हमने स्वयं को एक ऊँचे पहाड़ पर खड़ा पाया, हमारे सामने बाणगंगा नदी और उसके दूसरी तरफ रेलवे लाइन थी। हम उस पहाड़ से धीरे धीरे नीचे उतरे और बाणगंगा नदी तक गए कुछ फोटो ग्राफ़ी करने के बाद हम अच्छरा माता के दर्शन करने चल दिए। अच्छरा माता के बारे में मान्यता है कि निसंतान स्त्रियां अगर यहाँ आकर सच्चे मन से उनकी आराधना करें तो उनको संतान की प्राप्ति निश्चित होती है। यहाँ एक झरना बहता है जिसके नीचे मैंने कल्पना से स्नान करने को कहा और उसने बड़े खुश होकर यहाँ स्नान किया। तत्पश्चात हम यहाँ से उसी पहाड़ को चढ़कर वापस मंदिर की तरफ रवाना हो लिए।
आज के पूरे दिन का हमारा प्लान धर्मशाला और ,मैक्लोड गंज में बिताने का था। इसलिए माँ, बड़े मामा, किशोर मामा को मंदिर पर छोड़कर हम मैक्लोडगंज घूमने चले गए और शाम को अँधेरा होने तक हम वापस आ गए।
देर शाम हम मैक्लोडगंज से वापस आ गए और आते ही लंगर भवन में गए और दुसरे दिन भी माता का प्रसाद भरपेट ग्रहण किया। थोड़ी देर मंदिर प्रांगण में रूकने के बाद हम वापस अपने कमरे पर चले गए। अबकी बार हमारे कमरे किसी लॉज़ या होटल में न होकर जमुनामाई जी के बने घरों में थे। इन कमरों में कोई भी आधुनिक सुविधा उपलब्ध नहीं थी। काफी देर रात तक मैं अपनी माँ से बातें करता रहा और फिर कब सो गया पता ही नहीं चला। सुबह सबेरे एक बार माँ के दर्शन के बाद अब हमारी तैयारी अपनी अगली यात्रा की थी। सभी लोग लगभग तैयार हो चुके थे, कुमार ने भी अपना होटल छोड़ दिया था और हम अपने सारे सामान के साथ अपनी अगली यात्रा पर रवाना हो चले।
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