इस गर्मी के माह में भी मुझे बरसात की वजह से काफी ठण्ड का सामना करना पड़ा। श्योपुर स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने और दीपक ने एक सिगड़ी के किनारे बैठकर चाय पी। यह काफी अच्छी और मसालेदार चाय थी जिसकी कीमत थी मात्र पाँच रुपये। स्टेशन के ही ठीक सामने एक सड़क जाती है, यह सड़क कुन्नु राष्ट्रीय पार्क की ओर जाती है जो यहाँ से अभी काफी दूर था। समयाभाव के कारण हम वहाँ तक नहीं जा सकते थे। फिर भी हमने एक ऑटो वाले को रोककर पूछा - हाँ भाई यहाँ देखने को क्या है ? वो हमारी बात सुनकर थोडा अचरज में पड़ गया और बोला कि आप श्योपुर घूमने आये हो ? हमने कहा कि हाँ। वो हमारी बात सुनकर काफी खुश हुआ और बोला कि काश आपकी तरह मुझे ऐसे ही रोज पर्यटक मिले तो हमारे साथ साथ इस जिले ( श्योपुर ) का भी नाम दुनिया में मशहूर हो जाए ।
सबसे पहले उस ऑटो वाले ने हमें श्योपुर की एक नदी के दर्शन कराये जो पथरीले रास्तो से बड़ी तीव्र गति से बहती हुई चली जा रही थी, बरसात की वजह से इस नदी का वेग देखने के लायक था, मैंने और दीपक ने काफी देर तक इस नदी को देखा। ऑटो वाले ने हमें नदी में नहाने के लिए पहले ही मना कर दिया था और वाकई उसने ठीक ही कहा था, इस नदी के वेग को देखकर ही इतना डर सा लग रहा था तो नहाने की तो उम्मीद ही क्या की जा सकती है। और फिर हम सुबह से काफी नहा चुके थे प्रकृति के मुफ्त फब्बारे में।
नदी के ठीक दाई ओर श्योपुर जिले का कारागार था, ऑटो वाला हमें पहले ही नदी के किनारे छोड़ कर जा चुका था। अब हमारे एक तरफ जेल थी और दूसरी तरफ नदी, पीछे की ऒर रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाला रास्ता था जिस पर अभी हम ऑटो में बैठ कर आये थे और सामने था कुन्नु नेशनल पार्क का पहला दरवाजा, मतलब जंगलो की शुरुआत।
शाम हो चली थी, आज रात हमें श्योपुर में ही रुकना था, जिस ट्रेन से हम आये थे वो स्टेशन पर ही खड़ी थी सुबह हमें इसी ट्रेन से ग्वालियर वापस लौटना था और अब हम चल दिए श्योपुर का इतिहास खोजने। मतलब श्योपुर किले की तरफ। हमने किले तक पहुँचने के लिए एक ऑटो किया और ऑटो वाले ने हमें श्योपुर के मुख्य चौराहे के बीच लाकर उतार दिया। यहाँ से एक रास्ता किले की तरफ जाता है। श्योपुर का किला शहर से एक मील दूर पहाड़ी पर बना हुआ है, इस किले के प्रवेशद्वार पर पहुंचकर मुझे ऐसा लगा जैसे साक्षात् मैं श्योपुर के महाराज से मिलने जा रहा हूँ, लेकिन अब ऐसा नहीं था, किले के अंदर काफी अच्छा खासा शहर बसा हुआ था । हम किले पर चढ़ते ही जा रहे और शाम भी ढलती ही जा रही थी। किले का इतिहास नीचे दिए गए एक फ़ोटो में आपको मिल जाएगा ।
किले से लौटकर हमने श्योंपुर का बाजार घूमा, यह एक काफी बड़ा और अच्छा बाजार है, यही मेरी नजर एक सिनेमा हॉल पर पड़ी जिसका नाम था कृष्णा टाकीज। इसमें 'भाग मिल्का भाग' मूवीज चल रही थी,चूँकि हमें आज श्योंपुर में ही रात काटनी थी सो रात बारह बजे तक समय काटने के लिए इससे अच्छी जगह हो ही नहीं सकती थी, हमने पहले एक होटल में खाना खाया, यहाँ अन्य जगहों कि तुलना में खाना काफी सस्ता और अच्छा था और उसके बाद हम सिनेमा में घुस गए, अभी इसमे पिछले शो का एंड चल रहा था, अर्थात हमने भाग मिल्का भाग मूवीज का एंड पहले देखा और शुरुआत बाद में।
मूवीज ख़त्म होने के बाद हम श्योपुर कि सड़कों पर भटकते हुए नजर आये, मतलब हम रेलवे स्टेशन का रास्ता भूल गए, शहर में एकदम सन्नाटा था, हमें कोई रास्ता बताने वाला नहीं था। बड़ी मशक्कत के बाद आखिर हमें पुलिस की एक जीप दिखाई दी जो रात्रि के समय श्योंपुर शहर कि गश्त पर थी, पुलिस वालों ने हमें स्टेशन के रास्ते पर उतार दिया और हम स्टेशन पहुंचे। ट्रेन सामने ही खड़ी हुई थी, मैं और दीपक ट्रेन में ही बिस्तर लगाकर सो गए।
आइये अब नीचे श्योपुर देखते हैं ।
A very nice tourist spot.
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