UPADHYAY TRIPS PRESENT'S
खानवा का मैदान
यात्रा दिनाँक - 24 मई 2021
सहयात्री - धर्मेंद्र भारद्वाज
आज लॉक डाउन का चौबीसवाँ दिन था, चौबीस दिन से अधिक हो गए थे घर से कहीं बाहर निकले, इसलिए मन अब कहीं बाहर घूमने के लिए बहुत ही बैचैन था। इस वर्ष कोरोना की इस दूसरी लहर ने तो हर तरफ हाहाकार सा मचा दिया था। पिछली साल की तुलना में कोरोना अब अधिक विकराल रूप ले चुका था और इस वर्ष इसने लोगों की श्वास ही रोक दी थी, भारी मात्रा में इस वर्ष आक्सीजन की कमी के चलते लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा था। समाचारों में बस पूरे देश के अलग अलग प्रांतों में मरने वाले लोगों की संख्या ही बताई जा रही थी। अब जब सरकार ने अपने अथक प्रयासों के चलते कोरोना को काबू में करने की कोशिस की तब जाकर कहीं सभी ने राहत की साँस ली।
इस पूरे लॉक डाउन के दौरान अधिकतर लोगों के काम काज पर सरकार ने कोई पाबंदी नहीं लगाई थी। इन्हीं में से एक मेरे ममेरे भाई हैं धर्मेंद्र भारद्वाज, जो आयरा खेड़ा गाँव में रहते हैं और सैनी कम्पनी में सर्विस इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं। अपने कार्य के चलते इन्हें फील्ड का कार्य करना होता है, जहाँ कहीं भी कंपनी की चेन वाली मशीन खराब होती हैं वहाँ भाई जाकर उसे ठीक करते हैं। आज भाई को धौलपुर के नजदीक चम्बल के बीहड़ों में जाकर एक मशीन ठीक करनी थी, जहाँ वह मुझे भी अपने साथ ले गए और इसप्रकार इस लॉक डाउन के दौरान मुझे एक यात्रा करने का मौका मिला।
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मैं और भैया सुबह जल्दी ही बाइक से धौलपुर की ओर रवाना हो गए। मथुरा से धौलपुर की दुरी 100 किमी से भी ऊपर है इसलिए हम सुबह 9 बजे के लगभग भरतपुर होते हुए धौलपुर के लिए रवाना हुए। भरतपुर से धौलपुर वाले रास्ते पर ही प्रसिद्ध रणभूमि खानवा का मैदान पड़ता है, यह मैं भलीभांति जानता था इसलिए हमने आज खानवा घूमने का प्लान बनाया। भरतपुर से निकलने के कुछ देर बाद हम खानवा पहुँचे।
खानवा, आज के समय में एक छोटा सा क़स्बा है जो भरतपुर - धौलपुर राजमार्ग पर रूपबास तहसील के नजदीक गंभीरी नदी के किनारे स्थित है। खानवा के मैदान का भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है क्योंकि 1527 ई. में यहाँ मुग़ल शासक बाबर और चित्तौड़ के महाराणा सांगा के मध्य घोर युद्ध हुआ था। इसकारण आज यहाँ राणा सांगा की याद में घोड़े पर बैठी उनकी प्रतिमा दर्शनीय है।
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खानवा के युद्ध से पूर्व राणा साँगा ने रणथम्भौर के खंडार दुर्ग को जीतकर बयाना के दुर्ग की ओर कूच किया। बयाना का गवर्नर मेंहदीं ख्वाजा इस युद्ध में हार गया और राणा सांगा ने बयाना के दुर्ग को अपना आधार केंद्र बनाया। इसके बाद राणा साँगा का अगला रुख दिल्ली की तरफ हुआ जहाँ इस समय मुग़ल शासक बाबर ने हाल ही में अपना राज्य कायम किया था।
मेवाड़ के राजपूती शासकों की वीरता से बाबर भलीभांति परिचित हो चुका था इसलिए राणा सांगा पर चढ़ाई करने से पूर्व उसने अपने एक ज्योतिषी से इस युद्ध का परिणाम जानना चाहा। ज्योतिषी के घोषणा की, कि इस युद्ध में बाबर को असफलता ही हाथ लगेगी। बाबर एक दूरदर्शी योद्धा था, इस युद्ध के परिणाम को विजय में बदलने के लिए उसने एक अच्छा खासा भाषण लिखकर तैयार किया।
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16 मार्च 1527 ई. को आगरा से कुछ मील की दूरी पर खानवा के मैदान में मुग़ल और राजपूती सेना आमने सामने आ गईं। मेवाड़ की राजपूती सेना ने बहुत ही बहादुरी के साथ युद्ध करके, बाबर की सेना को युद्ध क्षेत्र से भागने को विवश कर दिया। खानवा की पहाड़ी पर इस समय बाबर की सेना का डेरा था और मैदान में राजपूती सेना खड़ी हुई थी। राणासाँगा की सेना में बड़े बड़े योद्धा थे जिनमे रायसेन का सिलहादी, हसनखाँ मेवाती और इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी भी शामिल था जिसने राणा का साथ इस शर्त पर दिया कि बाबर पर विजयोपरांत वह उसे दिल्ली का सुल्तान बना देगा।
अपनी सेना को हारते देख बाबर ने पहाड़ी के एक ऊँचे सिरे पर खड़े होकर अपनी सेना को सम्बोधित किया, अपने तेजस्वी भाषण से उसने अपनी सेना के पस्त हुए हौंसले को एक बार पुनः बढ़ा दिया था। उसने घोषणा की कि वह कभी अब मदिरा का सेवन नहीं करेगा और न ही उसके राज्य में मदिरा की क्रय बिक्री होगी और नाही अब किसी भी सैनिक से तमगा ( कर ) वसूल किया जायेगा।
इस युद्ध के बाद जो भी सैनिक काबुल लौटना चाहेगा, वह स्वतंत्रता से लौट सकेगा। बाबर की सेना में इस भाषण को सुनने के बाद युद्ध जीतने की एक नई उम्मीद की लहर सी दौड़ पड़ी और यह युद्ध अब मुग़ल सेना के लिए जेहाद बन चुका था। इसलिए बाबर ने इस युद्ध को जेहाद की संज्ञा दी।
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बाबर की सेना अब राजपूती सेना पर भारी पड़ने लगी थी। इस युद्ध में राणा सांगा की आँख में तीर लग जाने के कारण वह घायल होकर मूर्छित हो गए। आमेर के शासक पृथ्वीराज कछवाहा और जोधपुर के सेनापति मालदेव ने उन्हें खानवा से सुरक्षित निकालकर बसवा नामक स्थान पर पहुँचाया। युद्ध में हसनखाँ मेवाती वीरगति को प्राप्त हुआ और बाबर ने राजपूती सेना के मुंडों का ढेर लगाना शुरू कर दिया।
पानीपत के मुकाबले खानवा का यह युद्ध बाबर के लिए विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि पानीपत में एक अनुभवहीन शासक की पराजय हुई थी जबकि खानवा में वीर राजपूत शासक और राजपूती संघ के अलावा सिकंदर लोदी का पुत्र महमूद लोदी भी शामिल था। युद्ध का परिणाम भी बाबर के खिलाफ था किन्तु अपनी दूरदर्शी सोच के चलते बाबर ने हारते हुए भी इस युद्ध में विजय प्राप्त की।
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इस युद्ध में भाग्य ने राणा का साथ नहीं दिया अन्यथा निश्चित ही खानवा की विजय राणा सांगा की विजय होती। किन्तु फिर भी इस युद्ध का परिणाम निर्णायक ही रहा क्योंकि बाबर इस युद्ध में राणा को मार नहीं सका था। राणा सांगा के मूर्च्छित हो जाने के कारण और युद्ध क्षेत्र में अपने सेनानायक को ना देखकर राजपूती सेना का हौंसला टूटा और वह जीतते हुए युद्ध को हार गए।
खानवा की पहाड़ी पर राणासाँगा और उनके मुख्य सेनानियों स्मारक बने हैं। आज भी यहाँ इस पहाड़ी और आसपास के स्थान से भाले और तलवारें मिलती रहती हैं जो आज से 500 वर्ष पूर्व हुए उस महायुद्ध की याद दिलाते हैं। खानवा में यह पहाड़ी और स्मारक ही दर्शनीय हैं और साथ ही यह भूमि भी जिसपर लाखों वीर योद्धाओं ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया।
खानवा की इस पहाड़ी को देखने के बाद मैंने और भाई ने खानवा गाँव का भी भ्रमण किया और एक नल से पानी पीने के बाद हम चम्बल की घाटियों की ओर रवाना हो गए।
भरतपुर - धौलपुर मार्ग |
खानवा गाँव का एक दृश्य |
खानवा की पहाड़ी |
वीर राणा साँगा की प्रतिमा |
खानवा की पहाड़ी |
खानवा की पहाड़ी |
मैं और धर्मेंद्र भाई रास्ते में एक जगह |
अगला भाग - चम्बल नदी और उसकी घाटियाँ
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