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श्री केदारनाथ मार्ग और मेरे अनुभव - गौरीकुंड से बड़ी लिंचोली
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अब चढ़ाई शुरू हो चुकी थी और मेरा संपर्क अब प्रकृति के साथ हो चला था, भोलेनाथ के भक्तों की भीड़ के साथ साथ अब मैं भी भोलेनाथ के दरबार की तरफ बढ़ने लगा था कि अचानक मुझे याद आया कि माँ का पर्स और उनका बैग तो मेरे पास ही रह गया था जिसका मतलब था कि अब उनके पास एक पैसा भी नहीं था जिससे वो कहीं किसी दुकान पर चाय पी लें या कुछ खा लें, जब कि वो तो डायबिटीज की मरीज हैं उन्हें भूख बहुत ही जल्द लग आती है, अब कैसे होगा, क्या होगा बस कुछ ऐसे ही विचारों को अपने दिमाग में सोचते हुए मैं आगे बढ़ रहा था, एक तरफ मुझे माँ से बिछड़कर दुःख भी हो रहा था और दूसरी तरफ मन ये सोच कर खुश भी था कि जो भी हो अब मेरी माँ घोड़े पर बैठकर मंदिर तक तो पहुँच ही जाएगी।
मैं भी मंदिर पर पहुँच जाऊंगा जहाँ मेरी मुलाकात माँ से हो जाएगी बस चिंता इसी बात की रहेगी कि उनके पास पैसे नहीं हैं परन्तु हो सकता है भोलेनाथ कोई चमत्कार ही कर दें, मेरे अन्य सहयात्री जो कल के भोलेनाथ से मिलने गए हुए हैं उनकी भेंट माँ से हो जाए और फिर उन्हें कोई परेशानी ना हो।
मैं ऐसा सोचते सोचते पहला पड़ाव जंगलचट्टी पार गया। रास्ता बड़ा ही मनोरम था, मैं अकेला हरे भरी वादियों में चढ़ता जा रहा था कि मैं जंगलचट्टी के एक हैलीपैड पर पहुँचा, जहाँ से सामने वाले पहाड़ से एक ऊँचा झरना बह कर आ रहा था और सीधे नीचे मन्दाकिनी नदी में गिर रहा था। मन्दाकिनी यहाँ बहुत ही गहराई के साथ जोर से आवाज करती हुई बहती है। केदारनाथ के मार्ग में चढ़ाई करते हुए बहुत ही आनंद तो आ रहा था परन्तु अकेला होने के कारण मन नहीं लग रहा था और दूसरी तरफ माँ की बहुत ही चिंता लगी हुई थी, क्योंकि यहाँ रास्ता समतल ना होने के कारण काफी घोड़े फिसल रहे थे जिससे घुड़सवारों को चोट पहुंचने का खतरा ज्यादा था। मैं सामने वाले पहाड़ के झरने के फोटो अपने कैमरे से खींच ही रहा था कि अचानक कैमरे के लेंस का कवर नीचे खाई में गिर पड़ा जिससे मुझे बहुत दुःख पहुंचा।
केदारनाथ जी के इन ऊँचे पहाड़ों में मुझे अब वो स्थान दिखने लगा था जहाँ केदारनाथ जी का भव्य मंदिर स्थित है, मतलब हिमाच्छादित पहाड़ अब यहाँ से साफ़ साफ़ दिखाई देने लगे थे। मैं बस थोड़ा सा ही आगे बढ़ा था कि मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, सामने एक पहाड़ से बहुत ऊँचा झरना गिर रहा था जिसके नीचे हाथ मुँह धोती हुई मुझे मेरी माँ दिखाई दीं। माँ को सकुशल देखकर मैंने मन ही मन भोलेबाबा का धन्यवाद अदा किया और माँ से यहाँ रुकने का कारण पूछा, कारण वही था कि माँ घोड़े से दो बार गिरीं इसलिए फिर दुबारा घोड़े पर नहीं बैठीं। मैंने माँ से कहा अच्छा हुआ जो आप घोड़े पर नहीं बैठीं, आगे मार्ग और भी दुर्गम है। ये मेरे भोलेनाथ की ही कृपा है जो आप मुझे सकुशल मिल गईं। बस घोड़े से गिरने के कारण माँ के पैर में थोड़ी चोटें अवश्य आ गईं थीं।
अब मैं और माँ धीरे धीरे केदारनाथ जी की तरफ बढ़ने लगे थे। सुबह से दोपहर होते होते शाम भी नजदीक ही आ पहुंची थीं। माँ तीन चार किमी का सफर पैदल तय करके भीमबली तक पहुँच चुकी थीं जो इस यात्रा का मध्यम केंद्र था। यहाँ से आगे मार्ग भी काफी दुर्गम शुरू हो जाता है और चढ़ाई भी अत्यधिक कठिन हो जाती है। जो भी लोग ऊपर से दर्शन करके लौट रहे थे, माँ उनसे पूछती थीं कि अभी कितनी दूर है तो वो बस यही कहते बस थोड़ी सी दूर और है परन्तु आप ना जाएँ तो ही अच्छा है क्योंकि आगे रास्ता अत्यंत ही कठिन और दुर्गम है। अब माँ की चलने की शक्ति भी समाप्त हो चुकी थी और पैरों में चोट लग जाने के कारण दर्द भी होना शुरू हो चुका था।
भीमबली से थोड़ी सी आगे रामबाड़ा है जो त्रासदी से पहले इस यात्रा का एक मुख्य बाजार हुआ करता था किन्तु अब सिर्फ रामबाड़ा का नाम ही शेष रह गया है बाकी तो रामबाड़ा 2013 में आई भयानक त्राशदी का शिकार हो गया, जो केदारनाथ जी का पुराना रास्ता था वो भी पहाड़ खिसलने के कारण तबाह हो गया। उसकी जगह एक नया रास्ता मन्दाकिनी पार करके बनाया गया है जो पहले की अपेक्षा अत्यधिक ऊँचा और लम्बा है। रामबाड़ा के समाप्त हो जाने के कारण अब भीमबली ही इस यात्रा का मद्धम केंद्र है।
भीमबली के बारे में प्रचलित है कि जब पांडव भगवान् शिव को यहाँ खोज रहे थे तो भगवान शिव एक जंगली भैंसे के रूप में उनसे छिपते छिपाते घूम रहे थे। एक स्थान पर आकर सबसे पहले भैंसे के रूप में भीम ने उनको पहचान लिया और जिस स्थान पर भीम ने उन्हें पहचाना वो स्थान भीमबली कहलाता है। यहाँ से केदारनाथ जी का मंदिर तो दिखाई नहीं देता है किन्तु केदारनाथ क़स्बा और वो स्थान जहाँ मंदिर स्थित है साफ़ साफ़ नजर आता है।
आखिरकार माँ ने आगे बढ़ने से मना कर दिया, और कहीं ना कहीं मैं भी माँ के इस फैंसले से सहमत था। मंदिर तक पहुंचना ही सबकुछ नहीं होता। भगवान केवल श्रद्धा भाव और आस्था से प्रशन्न होते हैं और भगवान शिव के प्रति माँ की आस्था आज माँ को उन तक इन दुर्गम पहाड़ियों में ले आई थी। केदारनाथ जी की दूरी अब यहाँ से मात्र छ किमी ही शेष थी। माँ ने यहीं से भगवान् को विधिवत प्रणाम किया और अपनी केदारनाथ यात्रा को सम्पूर्ण करने की विनती की।
अब माँ की आस्था के साथ मुझे ही आगे बढ़ना था, माँ को उत्तराखंड सरकार द्वारा बनाई गई हट्स में एक रूम बुक कराकर मैं आगे बढ़ चला। भीमबली से थोड़ा आगे जाने पर ही मैं रामबाड़ा पहुंचा। यहाँ से मन्दाकिनी पार की और अब यात्रा दूसरे पहाड़ पर शुरू हो चुकी थी। यह यात्रा अब तक की यात्रा के हिसाब से अत्यंत ही चढ़ाई भरी और दुर्गम थी। इसी मार्ग पर मुझे तीन चार बड़ी बड़ी हिमनदियों को भी पार करना पड़ा। ग्लेशियर कैसे होते हैं आज इन हिमनदियों को देखकर ही मैंने जाना। बर्फ से जमी हुईं नदियाँ ही तो हिमनदी कहलाती हैं।
वाकई इस मार्ग पर आकर मैंने माना कि माँ यहाँ तक क्यों नहीं आ सकी थी, ये सब भोलेनाथ की ही इच्छा थी क्योंकि आगे का मार्ग ना मैंने पहले कभी देखा था और नाही माँ ने। फिर भी जहाँ तक पुराना रास्ता था माँ ने उसपर यात्रा पूर्ण की किन्तु ये नया रास्ता इतना दुर्गम है कि यहाँ तक चढ़ाई चढ़ के आना और इन हिमनदियों को पार करना शायद माँ के लिए बहुत ही मुश्किल भरा रहता। अच्छा हुआ भोलेनाथ ने माँ के लिए पहले ही रुकने की उचित व्यवस्था कर दी थी।
मैं अब धीरे धीरे लिंचोली तक पहुँच चुका था, ये इस यात्रा का केदारनाथ से पहले आखिरी पॉइंट है, शाम अब अँधेरे में तब्दील हो चुकी थी और ठंडी हवाएं अब शरीर में सुई की तरह चुभने लगी थीं। मैं जल्द ही एक दुकान पर पहुंचा और चूल्हे के किनारे बैठकर एक चाय का इंतजार करने लगा। मुझे हालांकि भूख लगी थी परन्तु जेब में बस कुछ ही रूपये शेष रह गए थे जिन्हें मैं चाह के भी खर्च नहीं करना चाहता था।
चाय के साथ एक बिस्किट का पैकेट लिया और कहीं तक अपनी भूख को शांत करने की कोशिश की। अब मेरा ठण्ड से बुरा हाल हो रहा था और बीच बीच में रुक रुक कर बरसने वाली बारिश ने इस ठण्ड को और तेज कर दिया था। चाय वाली दुकान पर बाहर बरसती हुई बारिश और ठण्ड को देखकर मैंने रात को केदारनाथ की आगे की यात्रा को यहीं विराम देना उचित समझा क्योंकि अँधेरा भी बढ़ चला था और अब मार्ग में चलने वाले यात्रियों की संख्या भी कम हो चुकी थी।
चाय वाले भैया के पास अपने निजी टैंट थे जिसमे रात को ठहरने की अच्छी खासी व्यवस्था थी परन्तु यहाँ एक रात रुकने के लिए 300/- पर व्यक्ति का कम से कम किराया था जो अभी मेरे पास नहीं थे। मैं यहाँ से थोड़ा आगे बढ़ चला। अँधेरा काफी हो चुका था, रास्ते में आने वाले पत्थर भी अब मुझे दिखाई नहीं दे रहे रहे थे। छोटी लिंचोली के बाद बड़ी लिंचोली आती है। मैं यहाँ एक टीन शेड के नीचे रुक गया और शरीर की थकान के कारण यहाँ पड़ी एक बेंच पर ही लेट गया।
मैं बेंच पर लेट तो गया परन्तु ठण्ड, पता नहीं कहाँ से मेरे शरीर तक पहुँच जाती थी और मैं चाहकर भी एक नींद सो नहीं सका। इस समय मेरा मोबाइल मेरा साथ दे रहा था, यहाँ मेरे मोबाइल में कुछ एयरटेल के नेटवर्क भी आ गए थे जिस वजह से मेरा संपर्क बाहरी दुनिया के साथ हो गया। मोबाइल बता रहा था कि इस यहाँ का तापमान माइनस में है जिसका मतलब है की ठण्ड अभी और तेज होने वाली थी और मेरे पास ठण्ड से बचने के लिए एकमात्र जैकेट ही थी जो इस ठण्ड से मुझे बचाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।
ठण्ड और भूख ने मुझे बहुत ही विचलित कर दिया था। मेरे पास मात्र 150/- रूपये ही थे जिनसे मुझे अभी लौटकर नीचे गौरीकुंड और सोनप्रयाग तक भी जाना था। मैं जहाँ लेटा हुआ था उसके पीछे एक सरदार जी की चाय की दुकान थी जिनके पास रात को रुकने के लिए टैंटों की व्यवस्था था और ठण्ड से बचने के लिए स्लीपिंग बैग की।
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वाह
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