चित्रकूट धाम यात्रा
त्रेतायुग में अयोध्या के राजा दशरथ ने अपनी तीसरी पत्नी कैकई को दिये दो वरों को पूरा करने के कारण, अत्यंत ही विवश और दुखी होकर अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया और कैकई पुत्र भरत को अयोध्या की राजगद्दी। तब श्री राम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ पिता के वचन को पूरा करने के लिए वन को चले गए। अयोध्या से उन्होंने दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया और तमसा नदी को पार करने के बाद श्रृंगवेरपुर पहुंचे जो उनके मित्र निषादराज का राज्य था।
इसके पश्चात उन्होंने केवट की नाव द्वारा गंगा नदी को पार किया और प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पहुंचे। भारद्वाज ऋषि ने भगवान श्री राम को दक्षिण दिशा में यमुना नदी को पार करने के बाद वन में कुटिया बनाकर रहने का सुझाव दिया और श्री राम अपने अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता के साथ यमुना पार करके कामदगिरि के निकट पहुंचे। इसी स्थान को उन्होंने अपने निवास हेतु चुना और यहीं अपनी पर्णकुटी बनाकर रहने लगे। यही स्थान चित्रकूट कहलाता है जो कामदगिरि पर्वत और मन्दाकिनी नदी के किनारे बसा हुआ है।
इधर जब भरत अपने भाई शत्रुघन के साथ अयोध्या पहुंचे तो उन्हें अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु और बड़े भाई के वनवास चले जाने के जानकारी हुई। वह फूट फूट कर रोने लगे और अपनी माता की गलती के कारण पश्चाताप भी करने लगे। इसी पश्चाताप और अपने धर्म के साथ वह अपने बड़े भाई राम, लक्ष्मण और सीता जी को वन से वापस लाने के लिए और उनका राज्य उन्हें सौंपने के लिए वन को चल दिए।
उनके साथ अयोध्या की प्रजा भी साथ थी, निषादराज से मिलने के बाद उन्होंने चित्रकूट में आकर प्रभु श्री राम से भेंट की और उनसे अयोध्या लौट चलने का आग्रह किया किन्तु वचनबद्ध होने के कारण श्री राम ने अयोध्या लौटने से इंकार कर दिया। भरत के चित्रकूट से चले जाने के बाद प्रभु श्री राम भी लक्ष्मण और माता सीता के साथ चित्रकूट छोड़कर दंडकारण्य के घने वनों की तरफ चले गए। इस प्रकार चित्रकूट उनकी रज और निवास के कारण एक पावन धाम बन गया।
कलियुग में गोस्वामी तुलसीदास जी ने चित्रकूट में मन्दाकिनी नदी के घाट पर बैठकर ही राम चरित मानस की रचना की। चित्रकूट के समीप ही अत्रि मुनि का भी आश्रम था जहाँ वे अपनी पत्नी माता अनुसुइया के साथ रहा करते थे।